Tuesday, March 29, 2016

||माँ ||
कहाँ हो तुम ????????
आज बहुत याद आ रही हो .आज कुछ सवाल पूछने हैं 
मैंने ये सवाल तुमसे पूछे तो कई बार लेकिन तुम हर बार मुझे बहला लेती थी .
और इसी प्रकार बहलाते बहलाते मेरे सारे सवालों के जवाब बिना बताये 
चली गयी .पर आज वही सवाल मुझसे मेरी बेटी पूछती है .
मैं उसे क्या उत्तर दूँ ???
हमारा जन्म भी पुरुषों की तरह ही हुआ है
फिर भी एक शासक और एक शोषित क्यों है ?स्त्री जन्म के रूप में ये कैसी दलदल
है जिसमें हम जन्म से धंसे हुए आती हैं और जीवन भर धंसी रहती हैं ?
ये कैसी शर्त है इस जीवन की इसमें आप स्वयं तो डूबें ही जाने से पहले एक और
स्त्री को इस दलदल में गहरे तक जाने के लिए विवश करें .
बिना शर्त की कुछ और शर्तें भी हैं जिन्हें मानना ही एकमात्र विकल्प है
आपको जीवन भर बस एक ही काम पूरे मनोयोग से करना है कि कोई
स्त्री इस दलदल से निकलना भी चाहे तो उसे नहीं निकलने देना है औरयदि
आप इस पुनीत कार्य में सहयोग नहीं करेंगी तो आप अच्छी स्त्री नहीं हैं
काश: माँ तुम अच्छी स्त्री बनने के लालच में ना पड़ी होती .
क्या मिला आपको ? मुझे छोड़ गयी किसी दलदल में धंसा कर .
और दुनिया वही सब मुझसे चाहती है .
पर मुझे अच्छी स्त्री की उपाधि पाने का कोई लालच नहीं है .मेरे लिए एक स्त्री का अस्तित्व ज्यादा महत्वपूर्ण है .और मै वही करूंगी जिसमें किसी को परतंत्र बनाने
का प्रयास सफल न हो सके .क्योंकि इस जंजीर को कहीं से तो तोडना ही होगा
शायद जंजीर तोड़ने के लिए वही कड़ी खोल दूँ जो मेरे हाथ में है .
क्योंकि ये समाज कभी नहीं समझेगा कि स्त्री हो या नदी .
उपेक्षा से दोनों पहले सूखती हैं और फिर धीरे धीरे मर जाती हैं .
काश:माँ कुछ हिम्मत तुमने भी दिखाई होती ........
माँ मुझे क्षमा करना आज तुम्हारी डांट का भी डर नहीं मानूंगी .
‪#‎जीवनअनुभव‬
LikeShow more reactions
Comment

Sunday, March 27, 2016

||ॐ ||
-------
--------
कितना कष्टदायक होता है शिव बनना ,
कोई पूछे शिवशंकर से.......
जब आप सबके हिस्से का विष परमार्थ के लिए पीते हैं
और लोग कहते हैं उन्हें विषैली चीजें अच्छी लगती हैं
जब विष को कंठ में रोकना पड़े और लोग कहें नीलकंठ ...
आप मौन हैं क्योंकि मुख खुलेगा तो विष की फुहारे बाहर
आ सकती हैं आप आँख मूंदकर अपने हृदय की जलन को सहन करने
का प्रयास कर रहे हैं और लोग कहें निर्मोही है ....
आप अपना ताप शांत करने के लिए बर्फ की गुफाओं में बैठे हैं
और लोग वहां भी पहुंच जाते हैं अपने ताप मिटाने ....
सचमुच बड़ा कठिन है शंकर हो जाना .....
जय जय श्री राधे

Monday, March 21, 2016

एक छोटा सा प्रयोग, जब भी तुम्हारे मन में कामवासना उठे तो करो!
********************
जब भी तुम्हें लगे कि कामवासना तुम्हें पकड़ रही है, तब डरो मत। शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको -- उच्छवास। भीतर मत लो श्वास को, क्योंकि जैसे ही तुम भीतर गहरी श्वास को लोगे, भीतर जाती श्वास काम-ऊर्जा को नीचे की ओर धकाती है।
जब तुम्हें कामवासना पकड़े, तब एक्सहेल करो, बाहर फेंको श्वास को। नाभि को भीतर खींचो, पेट को भीतर लो, और श्वास को बाहर फेंको, जितनी फेंक सको। धीरे-धीरे अभ्यास होने पर तुम संपूर्ण रूप से श्वास को बाहर फेंकने में सफल हो जाओगे।
जब सारी श्वास बाहर फिंक जाती है, तो तुम्हारे पेट और नाभि वैक्यूम हो जाते हैं, शून्य हो जाते हैं -- और जहां कहीं शून्य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। शून्य खींचता है, क्योंकि प्रकृति शून्य को बर्दाश्त नहीं करती, शून्य को भरती है।
तुम्हारी नाभि के पास शून्य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्क्षण नाभि की तरफ उठ जाती है -- और तुम्हें बड़ा रस मिलेगा -- जब तुम पहली दफा अनुभव करोगे कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि में उठ गई। तुम पाओगे, सारा तन एक गहन स्वास्थ्य से भर गया, एक ताजगी! यह ताजगी वैसी ही होगी, ठीक वैसा ही अनुभव होगा ताजगी का, जैसा संभोग के बाद उदासी का होता है, जैसे ऊर्जा के स्खलन के बाद एक शिथिलता पकड़ लेती है।
संभोग के बाद जैसे विषाद का अनुभव होगा, वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ जाए , तो तुम्हें हर्ष का अनुभव होगा, एक प्रफुल्लता घेर लेगी। ऊर्जा का रूपांतरण शुरु हुआ, तुम ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा सौमनस्यपूर्ण, ज्यादा उत्फुल्ल, सक्रिय, अनथके, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे -- जैसे गहरी नींद के बाद उठे हो, ताजगी आ गई।
यह मूलबंध की सहजतम प्रक्रिया है कि तुम श्वास को बाहर फेंक दो। नाभि शून्य हो जाएगी, ऊर्जा उठेगी नाभि की तरफ, मूलबंध का द्वार अपने आप बंद हो जाएगा। वह द्वार खुलता है ऊर्जा के धक्के से। जब ऊर्जा मूलाधार में नहीं रह जाती, धक्का नहीं पड़ता, द्वार बंद हो जाता है।
इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने एक सतत साधना बना ली -- और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता -- तुम इसे बाजार में खड़े हुए कर सकते हो, किसी को पता भी नहीं चलेगा, तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, किसी को पता भी नहीं चलेगा -- अगर एक व्यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ ही महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई।
काम-ऊर्जा रह गई, वासना तिरोहित हो गई!
ध्यान विज्ञान

Saturday, March 19, 2016

||मेरेभवन के मालिक ,मेरे दाता तुझे किस नाम से पुकारूं ?||
---------------------------------------------------------------
पहले जब आपको पुकारती थी तो कोई नाम लेकर पुकारती थी पर
अब तुम पर कोई नाम जंचता ही नहीं |पहले किसी की बनाई
किसी आकृति को तुम्हारा रूप समझती थी पर अब कोई तस्वीर
कोई श्रृंगार तुम्हारे योग्य नहीं लगता |कभी तुम्हें मिलने किसी
तीर्थ में जाने की इच्छा होती थी अब कहीं जाने की तमन्ना नहीं रही
मैं जानती हूँ तुम मुझमें हो मै तुम्हें महसूस करती हूँ बस............
अब मुझसे मिलो ,मुझमें रहकर
कोई बात करो मुझसे कहकर
मेरे कितने जनम गये वृथा
माना सब दोष हमारा था
अब भूल भी जा मेरे दोषों को
अब साथ रहो साथी बनकर
हम एक नयन के दो आँसू
एक फिसल गया एक सूख गया
अब भूल भी जा बरसातों को
मेरे साथ रहो झरना बनकर
मैं पल पल तुझको ढूंढ रही
अब आन मिलो सदियाँ बनकर
कितनी श्वांसो की कथा मेरी
श्वांसो की धुन में गूंज रही
कभी सुन तो सही कभी ध्यान तो दे
मेरा गीत सुनो श्रोता बनकर
श्री हरि
‪#‎जीवनअनुभव‬

Thursday, March 17, 2016

Savita Goyal to Shri Banke Bihari Temple, Vrindavan
||नारायण ||
-------------
लौट आओ तुम क्षितिज के पार मैं पथ में खड़ा हूँ |
हम चलेंगे साथ मैं पथ में खड़ा हूँ ||
जब जगत की भीड़ में तुम जा रहे थे 
झील झरनों के तराने गा रहे थे
जब छुड़ाया हाथ मैं तब से खड़ा हूँ
लौट आओ तुम क्षितिज के पार मैं पथ में खड़ा हूँ
तुम रहो उस पार ,ये तुमने चुना था
मेरा मन क्रन्दन कहाँ तुमने सुना था
तुम मेरी आवाज थे मैं चुप खड़ा हूँ
लौट आओ तुम क्षितिज के पार मैं पथ में खड़ा हूँ
तुम जगत की रौशनी में खो गये हो
मेरे होकर भी पराये हो गये हो
कब कहोगे नाथ जंगल में पड़ा हूँ
लौट आओ तुम क्षितिज के पार मैं पथ में खड़ा हूँ
कल हुई जो बात उसको आज छोडो
जग से नाता तोड़ अपने घर से जोड़ो
बांह फैलाए मैं जन्मों से खड़ा हूँ
लौट आओ तुम क्षितिज के पार मैं पथ में खड़ा हूँ
‪#‎जीवनअनुभवश्रीहरिप्रेरणासे‬
||श्री हरि ||
------------
------------
हे अनंत आकाश तुझको देखना है
हे अखिल ब्रह्मांड तुझको देखना है 
तू गगन की खिडकियों से झांकता है,
लोग कहते हैं गगन तेरा पता है
मुझसे मिलने का है कब अवकाश ,मुझको देखना है
तू जगत की आत्मा सब का पिता है
लोग कहते हैं तू सबको सुन रहा है
मुझसे हो कब बात मुझको देखना है
जब जगत की झील में मुझको धकेला
साथ की थी बात ,फिर छोड़ा अकेला
कब चलोगे साथ मुझको देखना है
रोज होती रात ,फिर होता सवेरा
चाँद सूरज की चमक फिर भी अँधेरा
तुझमें जो प्रकाश मुझको देखना है
हे अनंत आकाश तुझको देखना है
हे अखिल ब्रह्मांड तुझको देखना है
‪#‎जीवनअनुभवश्रीहरिप्रेरणासे‬
||जय श्री कृष्णा ||
--------------------
मुझे मिल गया ...
एक इंजीनियर था |उसे विभिन्न आकार प्रकार के भवन बनाने का बड़ा ही शौक़ था |वो जब भी कोई भवन बनाता तो भवन में एक कक्ष अपने लिए जरुर बनाता था |और नया भवन बनने के बाद उसी में रहता था |एक बार उसने भवन बनाना शुरू किया तो निर्माणाधीन भवन में ही एक सेवक की नियुक्ति कर दी अब भवन निर्माण से लेकर रखरखाव तक की सभी जिम्मेदारी उस सेवक को सौंप कर वो उसी भवन के एक कोने में बैठ गया |अब भवन जब बनकर तैयार होने ही वाला था कि एक दिन सेवक को बुला कर कहा जब भवन बनकर तैयार हो जायेगा तो लोग भवन को देखने आयेंगे |तब तुम ही उनसे मिलना मैं यहीं हूँ इसी भवन के एक कक्ष में |तुम्हें जब भी कोई आवश्यकता हो मुझे बताना |तुम्हें बस इतना करना है कि जब अपने लिए भोजन बनाओ तो मेरे लिए भी बनाना और कोई निर्णय करो तो मुझसे सलाह कर लेना |बाकी तुम जानो ............
इसके लिए मेरा नम्बर संभाल कर रखो .जब चाहो इंटरकॉम पर संपर्क करसकते हो |ये कहकर वो इंजीनियर भवन के भीतर प्रवेश कर गया |भवन का उद्घाटन हुआ लोग देखने आते उस सेवक से बात करते ,शुरू शुरू में सेवक को जो भी आवश्यकता होती |वो उपलब्ध हो जाता और सेवक उस में संतुष्ट हो जाता |फिर धीरे धीरे भवन के रखरखाव के लिए जरूरतें बढने लगीं |उसने मालिक से कहा मालिक ने उसे कुछ सहायक उपलब्ध करा दिए |
वो प्रधान सेवक बड़ा खुश हुआ अब सहायको से काम करवाता और स्वयं बैठकर भवन पर
कब्जा करने के मंसूबे बनाता |धीरे धीरे उसने मालिक से पूछना भी छोड़ दिया |उसे अपने मालिक होने का इतना विश्वास हो गया कि वो अंदर किसी कक्ष में मौजूद असली मालिक को भी भूल गया |मालिक भी उसे व्यस्त देखकर कुछ उदास रहने लगा |अब सेवक उससे
बिलकुल बात नहीं करता था |यहाँ तक कि उससे कुछ मांगता भी नहीं था |पर इंजीनियर
को अभी भी याद था कि भवन मेरा है सो भवन में रहने वालों का भार भी मुझ पर है सो सेवक के बिना मांगे भी वो आवश्यक प्रबंध करता रहा |इसी तरह बहुत सा समय बीत गया सेवक अपनी धुन में ऐसा खोया कि पहले खुद को भूला फिर मालिक को भूला और फिर वो इंटरकॉम पर सम्पर्क करने का माध्यम (नम्बर)भी भूल गया |मालिक इस भवन की जरूरी व्यवस्था करके दूसरे भवन निर्माण में व्यस्त हो गया |लेकिन अनाप शनाप खर्च और बिना सोचे निर्णय करने के कारण इस भवन का सारा खजाना खाली हो गया |आवश्यक खर्च के अभाव में उसके सहायकों ने भी साथ छोड़ना आरम्भ कर दिया |अब तो वो प्रधान सेवक बड़ा दुखी हुआ |फिर उसे किसी और भवन का सेवक मिला |जब उसने पहले सेवक की पीड़ा सुनी तो अपने मालिक से बताने का सुझाव दिया |अब तो वह और दुखी हो गया क्योंकि सम्पर्क सूत्र तो जाने कहाँ खो गया था |तब उसने विचार किया भवन के अंदर जाकर देखूं ?वह अंदर गया फिर मालिक को न पाकर निराश होकर बाहर आ गया उसके बाहर आते ही भवन नष्ट हो गया |तब से आज तक वो सेवक अपने मालिक से मिलने के लिए हर नये भवन में जाता है और कुछ दिन वहाँ रहता है |भवन में उपलब्ध सामग्री का उपभोग करता है समाप्ति पर मालिक को ढूंढता है और न मिलने पर बाहर आकर फिर किसी नये भवन में प्रवेश कर जाता है |युगों युगों से ये सिलसला यूँ ही चल रहा है |अबकी बार उसने सोचा है कि इस बार बस मालिक को खोजूंगा और भवन में उपलब्ध भोग सामग्री का बस जरूरत भर उपयोग करूंगा |भवन में ज्यादा सामान होगा तो उसे बाहर निकाल दूंगा |हो सकता है साफ सफाई करते वक्त वो सम्पर्क सूत्र मिल जाये ?
ईश्वर से प्रार्थना है कि इस बार उसकी मदद करें |
संतो का ही कथन है कि ...............
क्षमा बडन को चाहिए ,छोटन को अपराध
श्री हरि |
‪#‎जीवनअनुभव‬
LikeShow more reactions
Comment

Tuesday, March 15, 2016

||श्री हरि||
----------
कितने दिन गुजर गये ,जब भी मन उदास होता है तो मन में बस एक ही विचार आता है काश आज माँ होती| और ये जानकर कि माँ अब कहीं नहीं है दिल फिर
निराश होने लगता है |अक्सर कुछ ऐसा ही भाव ईश्वर के लिए भी होता है |कभी 
कभी दिल छोटे बच्चे की तरह हुमकता हैं कि बस उन्हीं के साथ रहना है बदले में 
कुछ नहीं चाहिए |माँ भी नहीं .............
और आज ये दिल फिर उसी जिद पर आ गया है |जानते हैं क्यों ?........
कल बड़े वर्षों बाद हमारे एक भाई मिले |हमें देखकर बोले तुम्हें देखकर चाची
(हमारी माँ )की याद आ गयी |मतलब हम धीरे धीरे अपनी माँ में बदल रहे हैं|
तो चलो आज से शीशे के सामने खड़े होकर माँ से मिल लिया करेंगे |
और तभी से मन में बार बार यही इच्छा हो रही है काश कोई हमसे मिलकर कहे
तुम्हें देखकर ठाकुर जी (हमारे भाई)की याद आ गयी |कितना आनंदमय अनुभव हो हमें ठाकुर जी से मिलने की इच्छा हो और हम जाकर दर्पण के सामने बैठ जाएँ |और फिर खूब दर्शन हों न उन्हें आने जाने का झंझट ना हमें उनके बिछड़ने का कोई डर ..............................
श्री हरि ......जय जय श्री राधे

Thursday, March 10, 2016

||जय जय श्रीकृष्णा ||
----------------------
अंतहीन सिलसिला हमारी मूर्खताओं का ...........
और मेरे प्रभु का कैसा अटल स्वभाव बार बार क्षमा करने का ....
न हम सुधरने को तैयार और न वो हमें छोड़ने को .बस समझाते हैं 
वो भी एकांत में बिलकुल माँ की तरह ...
देखो तुम मेरे हो और तुम्हारे हर आचरण से मैं जुडा हूँ इसलिए ऐसा कोई काम
ना करना जो उचित न हो तुम अनुचित करोगे लोग मुझे कहेंगे .....
क्या ये सब तुम्हें अच्छा लगेगा ?
हम भी बड़े गंभीर होकर हाँ में हाँ मिलाते हुए संत सज्जन होने का भ्रम बनाते हैं
और वो बस मुस्कराते हैं |और हम अगली बार अवसर मिलते ही अपना रंग दिखा देते हैं|
अभी कोई मित्र चले आए उन्हें कुछ सामान की जरूरत थी हमने अपने बेटे के हाथ
भिजवा दिया |जब बेटे ने कहा मैंने दे दिया तो हमारा अहंकार बोला मेरेपैसे थे तूने क्या दिया
और वो फिर एकांत में ले जाकर धीरे से बोले तुम कहाँ से लायी थी ?
जब लिए मैंने, वापस करूंगा मैं ,किसी और को आवश्यकता थी तो उसको दे दिए
ये क्या बात बात में सबकी टोकरी अपने सिर पर उठा लेती हो ..........
जब एक बार कह दिया कि मैं हूँ ना तो विश्वास क्यों नहीं करती .
अब उन्हें कैसे बताऊं कि आदत से मजबूर हूँ
उनकी गोद में बैठकरभी अपनी करम गठरिया छोड़ने को तैयार नहीं
बड़ा मजबूत संस्कार है आसानी से नहीं छुटेगा
पर इतना भी विश्वास है कि वो कदम कदम पर दृष्टि रखे हुए हैं .एक न एक दिन अवश्य ही सुधार देंगे .क्योंकि हमारी गलती उनका नाम खराब करती है
श्री हरि
‪#‎जीवनअनुभव‬
Like
Comment

Wednesday, March 9, 2016

पर्यावरण प्रदूषण कितने उत्तरदायी हम और हमारा सेक्यूलरिज्म

पर्यावरण प्रदूषण कितने उत्तरदायी हम और हमारा सेक्यूलरिज्म 

पिछले वर्ष की ही तरह इस बार भी बेमौसम बरसात ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है |देश के कई हिस्सों में ओलावृष्टि ने कहर बरपाया |आलू की फसल अपनी आँखों के सामने बर्बाद होती देख गौंडा के किसान की सदमे से मौत हो गयी |ऐसी खबरों का सिलसला अभी बस शुरू हुआ है |अब हम लगभग रोज ही इस तरह की खबरें पढ़ेंगे और कभी भगवान और कभी सरकार को कोसेंगे |फिर सरकार से मुआवजे की मांग करेंगे |फिर उस मुआवजे में आरक्षण मांगेंगे और हमारे नेता चीख चीख कर सबको बतायेंगे कि दलित ,पिछड़ा और अल्पसंख्यक सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं |और दोषारोपण का अनवरत सिलसला ..........
क्या यही समाधान है ?क्या इस सब से मौसम अपना व्यवहार सुधार लेगा ?
अभी पिछले दिनों एक और मुद्दा बड़ी सिद्दत से खबरों की सुर्खी बना |खानपान का अधिकार .......
जो शाकाहारी हैं वो मांसाहार विशेष कर गौ मांस के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे और दूसरा पक्ष जो अपने को हर बार सेक्यूलर दिखाने के चक्कर में राष्ट्रहित की अनदेखी करता है बीफ पार्टी का आयोजन कर रहा था |
कुछ और धर्मगुरु आपस में झगड़ रहे थे ,एक कह रहे थे ये मांसाहार हमारा धार्मिक कर्तव्य है और दूसरे बता रहे थे कि मांसाहार मानवता के लिए खतरा है |कोई किसी की बात सुनने को तैयार नहीं .........
और मौसम इन सब के झगड़े का मानों उपहास उड़ाता हुआ आया और शाकाहारी और मांसाहारी दोनों को रौंद कर चला गया |
जिस प्रकार प्राकृतिक आपदा सबकी साझी होती हैं उसी प्रकार कुछ सामाजिक कर्तव्य भी सबके साझे होते हैं |
जिस समाज के लोग अपने साझे कर्तव्यों को ठीक ढंग से निभाते हैं वो समाज और राष्ट्र हमेशा उन्नति करता है और जिस समाज के लोगों को केवल अधिकार याद रहें और कर्तव्य भूलने की लत लग जाये उस समाज और जाति को नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता |
हम धर्म के नाम पर जनसंख्या बढ़ा रहे हैं जबकि धर्म चाहे कोई भी हो जीवन के लिए स्वच्छ वायु की आवश्यकता सबको होती है जो कि बढ़ते जनसंख्या घनत्व में संभव नहीं है 
इसी प्रकार धर्म के नाम पर मासांहार को बढ़ावा दिया जा रहा है |उत्तर प्रदेश में तो इसे लोगों के लिए रोजी रोटी का नाम दे दिया गया है |तो क्या मांसाहारी रोटी खाना छोड़ सकते हैं ?पशु कटान से उत्पन्न सारा रक्त इत्यादि वेस्ट स्वच्छ जल से भरी नदियों में छोड़ा जा रहा है ,तो क्या मांसाहारी लोगों को स्वच्छ जल की आवश्यकता नहीं है |आवास के नाम पर घटती कृषि भूमि क्या केवल शाकाहारियों की ही समस्या है ?
यदि नहीं तो उठिए !और अपनी प्यारी पृथ्वी को बचाने के लिए योगदान करिए !
बंद करो धर्म के नाम पर जनसंख्या बढ़ाना मेरी धरती माँ इतना बोझ नहीं उठा पायेगी 
छोड़ो मांसाहार क्योंकि कोई भी माँ अपने बच्चों का रक्त पीकर मर जाएगी 
हर रास्ते पर वृक्ष लगाओ ताकि सबके बच्चे स्वच्छ वायु में सांस ले सकें 
जब धरती होगी हरी भरी .तभी तो लोग कहेंगे ओततेरी ..........क्या नजारा है 

Tuesday, March 8, 2016

मुजफ्फरनगर दंगा

मुजफ्फरनगर दंगा 

मुजफ्फरनगर जिले में अगस्त 2013 में हुए दंगो की रिपोर्ट आ गयी है .जस्टिस विष्णु सहाय आयोग ने इसे तैयार करने में लगभग दो वर्ष का समय लिया | मेरी नजर में ये समय और धन की बर्बादी है |इससे अच्छा
तो ये होता कि जाँच दल को एक दो माह के लिए किसी मुस्लिम बहुल इलाके में छोड़ देते और साथ में कुछ
कथित दंगा पीड़ितों को भी !बहुत ही उम्दा रिपोर्ट तैयार होती |
और यही काम अगर रमजान के महीने में होता तो और अच्छा था लगे हाथ कुछ सवाब भी कमा लेते जज साहब 

महिला दिवस


महिला दिवस  
---------------  
कितना हास्यास्पद लगता है सारे पुरुष महिला दिवस मना रहे हैं .वो भी जिनके घर में महिलाओं को फोन तक रखने का अधिकार नहीं वो व्हाट्स अप पर महिला दिवस मना रहे हैं .महिलाएं भी खुश पुरुष हमारे लिए आवाज उठा रहे हैं .......
और जिनके लिए सचमुच सेलिब्रेशन होना चाहिए वो व्यस्त हैं बल्कि आज सब दिन से ज्यादा व्यस्त हैं .
आज किसी भी कामवाली को छुट्टी नहीं मिली .आफिस में देर तक रुकना पड़ा .और हमारी नारी शक्ति को 
आज ज्यादा शक्ति खर्च करनी पड़ी घर आकर .जो रसोई नौ बजे सिमट जाती  थी  आज दस बजे भी सिमट 
जाये तो गनीमत जानो .भाई आखिरकार महिला दिवस है सेलिब्रेशन तो बनता है 
आओ सुनाऊं आज तुम्हें मै एक नारी की करुण कथा 
सुख पाने की चाह में जिसने दुःख का एक समुद्र मथा 
सब भाइयों में छोटी थी पर माँ को लगता बड़ी हुई 
छोटी छोटी चाहरदीवारी में दिखती थी खड़ी हुई 
राधा सी कोमल थी लेकिन मन में कोई श्याम न था 
सुख पाने की चाह में जिसने दुःख का एक समुद्र मथा 
जिस आंगन में खेलकूद कर बचपन से अपना माना 
उस आंगन ने उस बाबुल ने छपवाया एक परवाना 
अब बेटी अपने घर जाओ ,ये आंगन तेरा न था 
सुख पाने की चाह में जिसने दुःख का एक समुद्र मथा 
नये नगर में नये लोग थे ,नयी नयी चतुराई थी 
उस घर में सब घर वाले थे वो ही एक पराई थी 
अजनबियों के उस मेले में कोई भी अपना न था 
सुख पाने की चाह में जिसने दुःख का एक समुद्र मथा 
माँ कहती वो तेरा घर है ,सास कहे ये मेरा घर 
तेरे मेरे के झगड़े में बीत गयी अनमोल उमर 
जीवन संध्या की बेला थी लेकिन अपना घर न था 
सुख पाने की चाह में जिसने दुःख का एक समुद्र मथा 
सुख पाने की चाह में जिसने दुःख का एक समुद्र मथा 

Monday, March 7, 2016

जिन्दगी सच में एक सफर है |इस सफर में अनेक उतार चढ़ाव भरे रास्ते हैं |कुछ लोग इन रास्तों को कठिनाइयों का नाम देते हैं और कुछ लोग इन्हीं में जीवन का आंनद मानते हैं |मैं शायद दूसरी श्रेणी की महिला हूँ जिसे सीधे रास्ते कभी पसंद नहीं रहे क्योंकि मुझे लगता है कि सीधे रास्ते किसी और के बनाये रास्ते होते हैं और जो किसी और का बनाया मार्ग है उस पर चलकर कोई क्या खोजेगा ?
नया खोजने के लिए मार्ग भी नया ही होना चाहिए 

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥
निराकारमोङ्कारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥
तुषाराद्रि सङ्काश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥