Tuesday, May 3, 2016

मुक्ति में बाधक हमारा त्याग .

जाने कितने जन्म  बीत  गये  हमें  अपनी  मुक्ति  का  उपाय  ढूंढते  ढूंढते | युगों  से  साधू  महात्मा  पीर  फकीर  ज्ञानी  योगी  सबकी एक  ही  अभिलाषा  मुक्ति कैसे मिले ?
जिससे  उपाय  पूछो एक ही उपाय  बताता  है त्याग करो संग्रह  छोड़ो  ........
पर वास्तव  में  देखा जाय तो  हमारे  बंधन का  मुख्य कारण  भी  हमारा  त्याग  ही  है  |बिना  आन्तरिक  अनुभव किये किसी को आदर्श मानकर अनुशरण से किया गये सभी कार्य बंधन का कारण  बनते हैं ..
अन्यथा जनक से  विदेह की पुत्री और स्वयं जगतपति श्री राम की संगिनी होकर भी सीता को रावण की कैद  में रहना पड़ा | क्या  कारण  था .....
क्योंकि सीता ने त्याग का अभ्यास न होने पर भी त्याग किया राजसी सुखों का ,क्योंकि हर माता अपनी पुत्री को यही सिखाती है पति का साथ कभी न छोड़ना | .सुख हो अथवा दुःख सदा आगे बढकर बाँट लेना | सीता जी ने माँ के इस वाक्य को ब्रह्म वाक्य बना लिया और इसके पालन में आने वाली किसी भी बाधा को नहीं माना |
फिर चाहे वो दशरथ का शोक हो अथवा राम का ये कहना कि मेरे यहाँ के कर्तव्य तुम ले लो ..........
लेकिन क्या वास्तव में सीता छोड़ पाई वो सब जो उनके जीवन के अभ्यास में रच बस गया था .? हमें लगता है नहीं क्योंकि सीता ने उन सुखों का त्याग नहीं किया था बल्कि कुछ समय के लिए उनसे दूर रहने का संकल्प लिया था | बिलकुल वैसे ही जैसे हम एकादशी करने का संकल्प करते हैं लेकिन मन में अगले दिन बनने वाले  प्रसाद की योजना तैयार होती रहती है | कुछ मित्रों को शायद ये भगवत मर्यादा का उलंघन  लग सकता है पर वास्तव में सीता जी को पूर्ण विश्वास था कि चौदह वर्षों की अवधि समाप्त होते ही हम अयोध्या लौटेंगे .अपने घर ,अपने वैभव में और उनका ये एक भाव ही उनकी सारी तपस्या पर भारी सिद्ध हुआ | अन्यथा 13 वर्ष तक सयंम रखने वाली सीता एक स्वर्ण मृग के मोह में कदापि न पड़ी होती !
उन्हें लगा अब वनवास की अवधि समाप्त होने वाली है हम अयोध्या लौटेंगे | तो साथ में वन प्रवास की कोई निशानी तो होनी चाहिए | और स्वर्ण मृग को देखते ही उन्हें वो उपयुक्त निशानी मिल  गयी जो वन प्रवास में प्राप्त हो और अयोध्या के वैभव के अनुरूप भी हो |
पर प्रभु तो सबके हित की सोचते हैं फिर भला मिथिला पति विदेहराज जनक की आत्मा  उनकी पुत्री सीता जिसे जनक ने बड़े विश्वास से अखिल ब्रह्मांड नायक भगवान श्री राम को सौंपा था उसका अहित कैसे होने देते ? परन्तु संसार को ये भी तो समझाना था कि क्षणिक इच्छाएं  कैसे विराट संकट का कारण  बन  जाती  है
और यही कहता है रामकथा का ये प्रसंग ...जय जय श्री राधे 

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