Sunday, May 29, 2016

आओ चलें अमरनाथ ..

कितने वर्षों से मन बार बार कहता था ,कभी अवसर मिले तो हम भी जाएँ अमरनाथ दर्शन को | सुना है बर्फ से ढके ऊँचे ऊँचे पर्वत शिखरों के बीच किसी ठंडी गुफा में भगवान शिव विराजते हैं | वहां सब कुछ हिम अर्थात बर्फ है .इतनी असीम शांति की स्वयं अमरनाथ हिम स्वरूप हो गये | श्री राम चरित मानस में बाबा तुलसी ने बड़ा रहस्यमयी वर्णन किया है इस गुफा का | अमरनाथ की यात्रा के कुछ पड़ाव बताये गये हैं और  हर पड़ाव की एक अलग कथा है जैसे अनंत नाग में अपने शरीर के सभी छोटे  छोटे सर्पों को त्याग दिया | पिस्सूटॉप में पिस्सुओं  को छोड़ा चन्दन बाड़ी में मस्तक से चन्दन  और शेषनाग में अपने गले के  हार बने शेषनाग को भी त्याग दिया
और जब महादेव ने इस गुफा में प्रवेश किया तब उनके साथ केवल महादेवी उमा थी | क्योंकि उमा को अमरनाथ की कथा सुननी थी | अमरनाथ अर्थात अमरता के स्वामी स्वयं भगवान वासुदेव .जिनका नाम गुण  संकीर्तन ही ही उनका आवाह्न होता है जब कोई उनकी चर्चा ( मनसा ,वाचा ,कर्मणा किसी भी रूप में )करता है तब वो वहीं साकार होने लगते हैं | हम इस बार भी अमरनाथ की यादों में खोये हुए थे कि जैसे अचानक हमारे हृदय पटल पर स्वयं अमरनाथ साकार होकर हमें अमरनाथ की कथा सुनाने लगे .
अमरनाथ की यात्रा के लिए पहले पात्र बनना होता है | जैसे महादेव शिव .ऐसे ही कोई शिव नहीं बनता शिव बनने के लिए संसार के हिस्से का  सारा विष पीना पड़ता है .विष पीना भी सबके बस का काम नहीं उसे कंठ में रोकना पड़ता है .कंठ इतना सक्षम हो जो विष को रोक ले उसके लिए अनंत कोटि वर्षों तक तप करना पड़ता है .
मौन की साधना करनी होती है | और वही शिव जब अमरनाथ की यात्रा करना (कथा कहना  ) चाहते हैं तो अपने शिव होने का भी त्याग करना पड़ता है उन्हें | .....
  अमरनाथ की यात्रा वस्तुतः त्याग की यात्रा है | त्याग हर उस उपाधि का जो हमें हम होने का आभास कराती हो |अपनी पहचान ,अपना देहाभिमान ,अपना क्रोध ,अपने गुण अवगुण .यहाँ तक कि अपने शास्त्रज्ञान रूपी शेषनाग को भी किसी गहरी ठंडी झील में उतार देना होता है | और फिर  सब त्याग कर हल्के होकर मष्तिष्क की असीम शांति के साथ यात्रा आरम्भ करें उस हिम प्रदेश की जहाँ साधना की ऊचाईयों की तरफ बढ़ते हुए हर कदम के साथ आप हिमालय के निकट से निकटतम होते जायेंगे | भगवान शिव हिमालय में विराजते हैं .....
हिमालय "हिम का मन्दिर "अर्थात शांति का ऐसा चरम शिखर जहाँ दैहिक ,दैविक भौतिक तीनों तापों का कोई प्रभाव न हो .......
और तब से हम हर पल अमरनाथ की यात्रा में हैं |
श्री हरि
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Sunday, May 22, 2016

आओ समझें रामायण को -भाग -2

करम प्रधान विश्व रचि राखा | जो जस करहीं सो तस फल चाखा |
कैसी मनोरम छटा थी तब सरयू के तट पर ,आज भी अयोध्या में चंहु ओर उत्सव का वातावरण है | राजा दशरथ अपने सारे दायित्वों से मुक्त होना चाहते हैं इसीलिए राम को राज्य देकर स्वयं वन जाना चाहते हैं कुछ दिन गुरुजनों के आश्रम में रहकर अपने परलोक गमन की तैयारी को समय देना चाहते हैं | लेकिन ..............
करम प्रधान विश्व रचि राखा | जो जस करहीं सो तस फल चाखा ||
ये आधी चौपाई सम्पूर्ण जगत का आधार है | सबका प्रारब्ध उसके अपने कर्मों से निर्धारित होता है | अर्थात हम अपने भाग्य निर्माता स्वयं ही होते हैं | इस सत्य से सब परिचित हैं लेकिन दुःख का दोषारोपण किसी दूसरे पर करना भी हमारा पुराना स्वभाव है | सो आज जब श्रवण के माता पिता के शब्द बाण कैकेयी की वाणी  को  माध्यम बनाकर राजा दशरथ के हृदय को भेद रहे हैं तो राजा भूल गये कि ये बाण कभी उन्हीं के तरकस से निकले थे | वो बाण भी शब्द भेदी थे ,ये भी शब्दभेदी हैं | तब श्रवण का हृदय था आज महाराज दशरथ का हृदय है | तब धनुष राजा की जिव्हा थी आज  कैकेयी की जिव्हा धनुष बनी है | बड़ा कष्ट होता है जब शब्दभेदी बाण हृदय को छलनी करते हैं और अक्सर प्राण लेकर ही जाते हैं .......
सारे राज्य में शोर मचा है राम वन जा रहे हैं !कोई पूछता है क्यों और सब कैकेयी का नाम ले लेकर दोष मढ़ रहे हैं अथवा तो राजा के प्रारब्ध में भागीदार बन राजा का कर्ज चुका रहे हैं ..और अंत समय आते आते राजा को भी प्रायश्चित करने का अवसर मिल ही गया | ........
शेष क्रमशः 

Monday, May 16, 2016

आओ समझें रामायण को .....

आज  श्रवणकुमार की व्यथा ..

सरयू का तट है .चारों ओर सुंदर हरियाली फैली है .मंद पवन बह रही है .दोनों ओर हरे भरे वृक्ष और बीच में धीरे धीरे बहती हुई सरयू .मानों स्वर और ताल मिलकर वन देवी की आराधना कर रहे हों ...
एक पथिक जो बड़े दिनों से यात्रा में है .आज इधर आ निकला है | वो कोई साधारण यात्री  नहीं है बल्कि एक कर्मठ योगी है जिसने अपनी कर्म साधना में कभी संसाधनों के होने अथवा न होने को कारण नहीं बनने दिया |
उसके कंधे पर एक बहंगी (कावड़ )है जिसमें कोई गंगाजल नहीं है .उसकी यात्रा भी काशी विश्वनाथ के लिए नहीं है और उसे कोई जल्दी नहीं है अपनी मंजिल पर पहुँचने की | क्योंकि स्वयं काशीविश्वनाथ उसकी कावड़ में उसके माता पिता के रूप में उसके साथ यात्रा कर रहे हैं | उन्हीं की इच्छा है तीर्थो में जाकर स्वयं अपना दर्शन करने की ,सो श्रवणकुमार भी निकल पड़े हैं जन्मपिता को जगत्पिता मानकर आज्ञा पालन करने .......
और आज विधाता की प्रेरणा से आ निकले हैं सरयू के इस मनोरम तट पर ,जो अयोध्या की सीमाओं में आता है
और इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा दशरथ इसकी रक्षा करते हैं .राजा दशरथ धर्म धुरन्दर हैं स्वयं को अयोध्या का सेवक मानते हैं लेकिन कभी कभी सेवक को भी स्वामी होने का दुर्गुण घेर लेता है ..विनाश काले विपरीत बुद्धि .
राजा दशरथ शब्द भेदी बाण चलाने में निपुण हैं और आज  फिर उन्होंने शब्द भेदी बाण का संधान किया और सरयू की दिशा में लक्ष्य करके छोड़ दिया |
बाण सदा बांस के धनुष पर संधान करके चले ऐसा कोई नियम नहीं है और शब्द भेदी बाण के बारे में तो बिलकुल भी नहीं है | शब्द भेदी बाण बहुधा मन के तरकस से निकाल कर वाणी के धनुष पर शब्दों की प्रत्यंचा को आधार बनाकर चलाये जाते हैं और सीधे हृदय को भेद देते हैं ..
आज बिना अनुमति जल भरने का अपराध श्रवन कुमार कर बैठे हैं .श्रवणकुमार मुनि कुमार हैं ,तपस्वी हैं.
लेकिन राजा को जाने उनका कौन सा आचरण आहत कर गया कि अपने शब्द भेदी बाणों से श्रवण कुमार का हृदय विदीर्ण कर डाला | और वाणी से किया गया प्रहार बड़ा घातक होता है | श्रवणकुमार ने शरीर छोड़ दिया .और राजा दशरथ पश्चात्ताप में डूबे अपने अपराध को अनजाने में हुआ अपराध मान रहें हैं | श्रवण  के माता पिता अथवा तो स्वयं काशी विश्वनाथ एक कलश भर सरयू के जल की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो भक्त का संकल्प था भगवान के लिए | राजा दशरथ से विघ्न हुआ ,भक्त के संकल्प में ,तपस्वी की तपस्या में .और आश्रित के आश्रय में ,सो क्रोध ने प्रत्यंचा चढ़ा ली है और कई बाण छोड़ दिए हैं राजा दशरथ को लक्ष्य करके .जिनके परिणाम तुरंत दंड न देकर भय और आशंका की धीमी मौत देंगे | .......
हम अपने पापों की छाया में अकेले चलते हैं किसी को शामिल नहीं करना चाहते और स्वयं ही तर्क वितर्क करके
स्वयं को निर्दोष मान लेते हैं विशेष कर जब परमात्मा अनुकूल हो तो लगता है पाप गये अब न लौटेंगे | राजा दशरथ भी भूल गये हैं .हाँ उस घटना के बाद शब्द भेदी बाण चलाना छोड़ दिया है |
शेष क्रमशः

Sunday, May 8, 2016

मातृदिवस मना रहे हो ?????????????????

पिछले दो तीन  दिनों से हवा में कुछ अलग सा अहसास घुलने लगा था | f b की पोस्टों पर ,अखबारों की सुर्खियों में और बच्चों के स्कूलों में हर तरफ एक उल्लास सा दिख रहा था | कल तक हमें भी याद आ चुका था कि कल मदर्स डे है | वैसे तो हम अंग्रेजी परम्पराओं के पक्के विरोधी हैं लेकिन जब बात माँ की आती है तो किसी सूखे हुए घाव की सिलाई खुल जाती है और हमें हमारी माँ बहुत याद आती हैं | कल भी कुछ ऐसा ही हुआ हमने अपनी माँ की याद में अपनी सास को कुछ उपहार भेजा फिर हमारा बेटा हमारे लिए भी उपहार लाया | हम खुश थे आज का मदर्स डे अच्छे से सेलिब्रेट हो गया ..........लेकिन ???????????
खाना खा कर ज्यों ही लेटे माँ सामने खड़ी थी ,माँ की श्वेत हरी साड़ी जो उन्हें अंतिम समय में पहनाई गयी थी आज कुछ पीली सी पड़ रही थी | हमें देखते ही रोना आ गया ! माँ तुम कैसी हो ? कहाँ चली गयी ?तुम उदास क्यों हो ?माँ कुछ देर खामोश रही और फिर बोली मातृदिवस मना रहे हो ????????????
भाव कुछ ऐसा मानो हर शब्द में सैंकड़ो सवाल छिपे हों ......
हमने कहा हाँ ..तुम्हें अच्छा नहीं लगा ?...मैं चाहती हूँ मैं जब तक जिऊँ तुम्हारी बेटी बनकर रहूँ और अगले कई जन्मों में भी तुम्हीं मेरी माँ बनो !
माँ थोड़ी और उदास होकर बोली क्या सच में तुमने मुझे पहचान लिया .....मैं सदियों से तुम्हारी माँ हूँ |
हर जन्म और हर रूप में ,मैं इस सृष्टि में हर जन्मने वाले की माँ हूँ .स्वेदज ,अंडज .उद्भिज , जरायुज ...सबकी !
मैं धरती माँ हूँ जिसकी कसम तुम रोज खाते हो ,मेरे लिए लहू बहा देने की बात करते हो !
मेरी हरी साड़ी पीली पड़ गयी क्योंकि अब साड़ी धोने के लिए मेरे पास स्वच्छ जल नहीं है | तुम हर जन्म में मेरी गोद में पलना चाहती हो लेकिन मेरे स्तनों में अब जीवन दायिनी रसधार नहीं है | मेरी कोख सूख रही है | अपने बेटे से उपहार लिए ,अपनी सास को उपहार दिए ....एक बार मुझसे भी पूछ लेती माँ तुम्हें क्या चाहिए ?
तुम स्वयं एक माँ हो और तुम जानती हो माँ को क्या चाहिए ! मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए | मेरे बच्चों को भरपूर पोषण मिले उसके लिए मेरा स्वस्थ रहना आवश्यक है और उसके लिए एक वर्ष में एक दिन से कुछ न होगा | बस अपने बच्चों से इतना ही मांगती हूँ कि मेरी कोख से अमृत लेकर जहर मत उड़ेलो | थोडा कम में गुजारा कर लो .कुछ माँ को भी दो ताकि मैं उसे कई गुणा करके तुम्हारे बच्चों को लौटा सकूं !
माँ मर जाएगी तब कैसे रहोगे ? ,किसकी गोद में खेलोगे ? मेरे सूखे केश तुम्हें धूप और गर्मी से कैसे बचायेंगे ?
अपनी बूढी माँ को और बूढी मत करो !.तुम चाहो तो मैं फिर से युवा हो सकती हूँ ! मेरी पीली साड़ी फिर से हरी श्वेत हो सकती है !मेरे आंचल में फिर से अमृत की नदियाँ बह सकती है ! .............
मैने वादा करने के लिए अपना हाथ माँ के हाथ की तरफ बढ़ाया पर माँ ?.....
माँ जा चुकी थी .मेरी आँख में आंसू थे और दिल में मलाल ! हमारी माँ की पीड़ा हम कब समझेंगे ?
सभी मित्र मेरी माँ की तरफ से मातृदिवस की शुभकामना स्वीकार करें ........
|| श्री हरि ||

Saturday, May 7, 2016

जाने कैसे खोयी माँ

मैं  अपनी  माँ  की  परछाही  मेरे  अंदर सोई  माँ  |
फिर  भी  कब  से  खोज रही  हूँ  जाने  कैसे खोयी  माँ  ||
जब बचपन में खेल खिलौने  बाबा  लेकर  आते  थे  .
तब  भी  सबसे  पहले  जाकर  सब  माँ  को  दिखलाते  थे
बढ़े  खर्च को  कम  करने  में  रात  रात ना  सोई  माँ
फिर  भी  कब से खोज  रही  हूँ जाने  कैसे  खोयी  माँ  .................
थोडा थोडा  बचपन  अपना  पहले  हममें  बाँट दिया  |
जब निकले बचपन की  हद से  कभी  कभी  बस  डांट दिया  ||
बचपन और जवानी बांटी ,बूढी होकर  सोयी  माँ
फिर भी कब से खोज रही हूँ ,जाने कैसे खोयी माँ  .....................
बड़ी सयानी रानी बेटी कहकर रोज मनाती थी |
कभी हरा के  ,कभी जिता के जग की  जंग  सिखाती थी ||
गुस्सा करके डांट लगा के .खुद छुप  छुप  के  रोयी माँ .
फिर भी कब से खोज रही हूँ जाने कैसे खोयी माँ ...........................
आज  तुम्हारी बेटी माँ ,अपनी बेटी की मम्मा है |
तुमसे लेकर उसको दे दूँ ,रिश्तों की जो शम्मा  है ||
आज नवासी बन मेरे आंचल  में  छुप के  सोयी  माँ
फिर भी कब से खोज रही हूँ जाने कैसे खोयी माँ ..........
||माँ ||

Wednesday, May 4, 2016

 मामूली दबाव... उससे उपजा तनाव, और इस तनाव में निहित ऊर्जा के चलते भीषण तबाही ही... आसमान सी ऊंची खड़ी होनेवाली दीवार की वजह होते हैं।
सबसे ज्यादा नुकसान तनाव के चलते लगे झटके के विरुध, लचक नहीं होने से होता है। लचक बेहद जरूरी है... हर झटके से बच निकलने के लिए।

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250 लाख साल पहले चीन और भारत की धरती अलग थी। दोनों ने साथ रहने का फैसला किया या संयोग बना कि दोनों साथ रहें, और दोनों एक दूसरे के करीब आ गई।

पर साथ रहने की अपनी कीमत होती है। धरती के ये दोनों टुकड़े, 1.5 से 2 इंच सालाना की दर से, एक दूसरे को दबा रहे हैं। दूसरे पर एकदम मामूली दबाव बना रहे हैं... बेहद मामूली।

इस ना दिखनेवाले बेहद मामूली दर से वे एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं। दबाव की दर, बेहद मामूली है, एक साल में बस दो इंच, पर ये सचमुच में बेहद मामूली है क्या?

नतीजा सामने तो है... अपूर्णीय क्षति,

एक दूसरे को दबाने की कोशिश के इस दाब ने ही, इन दोनों के बीच, हिमालय जैसी ऊंची दीवार खड़ी कर दी है।

हमारे सारे जाती रिश्ते,, व्यक्तिगत और सामाजिक, सारे संबंध हमारे, ऐसे ही होते हैं। हम सब, एक दूसरे को अनदेखे दबाव से दबाते रहते हैं। वो दाब बेहद मामूली ही लगता है। लगता है कि इससे क्या होगा।

पर... दबाव मामूली ही क्यों ना हो, असर डालता है। हर दाब, एक बड़े तनाव की रचना करता है। उससे फर्क पड़ता है। दबाव से पैदा हुआ तनाव, जब अनियंत्रित होता है... तो भूकंप आता है। वो केवल जमीन में नहीं, व्यक्तिगत जीवन में भी आता है। तबाही... रिश्तों और व्यक्तियों के बीच भी मचती है। ये टूटन, व्यक्तियों के बीच भी हिमालय सी अलघ्य (जिसे पार ना किया जा सके) दीवार खड़ी कर देती है।

तो एक दूसरे को ‘मामूली समझे जानेवाले' दाब से दबाने से पहले, उससे पैदा होने वाले बेहिसाब तनाव और उसके नतीजे से हुए भूकंप के बारे में जरूर सोचिए, उससे होनेवाली तबाही के बारे में जरूर विचार करिए। व्यक्ति और रिश्तों के बीच खड़ी हो जानेवाली हिमालय जैसी दीवार का ख्याल जरूर कीजिएगा।

आपका मामूली दबाव... भीषण तबाही, आसमान सी ऊंची एक दीवार की वजह होता है।

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संसार, ब्रह्मांड में नियमों की कोई विविधता नहीं है। दिमाग वाले इंसानी रिश्ते, और मृत पत्थरों के बीच भी काम करनेवाले कायदे, एक ही होते हैं। उनका प्रभाव और नतीजा सब एक जैसा ही होता है।

तो भूकंप जमीन पर आए... या जीवन में... वजह मामूली समझा जानेवाले दबाव ही होता है। जमीन के दबाव को नियंत्रित नहीं कर सकते, आप जमीन के भूकंप को रोक नहीं सकते। वहां तो भूकंप आयेगा ही आएगा। हां, उस भूकंप से बचने की कोशिश जरूर करते है।

लेकिन अपने साथ के व्यक्ति पर जो दाब हम डालते हैं, ये इंसानी दबाव तो उपजता ही हमारे भीतर से है। तो इससे आए भूकंप से बचने से बहुत पहले तो हम इस भूकंप के होने ही नहीं देने में समर्थ हैं। तो रोक लीजिए, ऐसे हर भूकप को। अपनों पर... अपना दाब कम कीजिए।

उन्हें आजाद कीजिए, स्वतंत्र रहने दीजिए... उनपर हावी मत होईए... मत दबाईए उन्हें अपनी ऊर्जा से, अपनी विशाल भव्यता से।

वर्ना रिश्तों के बीच हिमालय सी दीवार खड़ी हो जाएगी... और हिमालय यूं ही खड़ा नहीं होता, वो लगातार विनाशकारी भूकंप के साथ खड़ा होता है। ये भूकंप तबतक आते हैं, जबतक सबकुछ खत्म ना हो जाएगा।

Tuesday, May 3, 2016

मुक्ति में बाधक हमारा त्याग .

जाने कितने जन्म  बीत  गये  हमें  अपनी  मुक्ति  का  उपाय  ढूंढते  ढूंढते | युगों  से  साधू  महात्मा  पीर  फकीर  ज्ञानी  योगी  सबकी एक  ही  अभिलाषा  मुक्ति कैसे मिले ?
जिससे  उपाय  पूछो एक ही उपाय  बताता  है त्याग करो संग्रह  छोड़ो  ........
पर वास्तव  में  देखा जाय तो  हमारे  बंधन का  मुख्य कारण  भी  हमारा  त्याग  ही  है  |बिना  आन्तरिक  अनुभव किये किसी को आदर्श मानकर अनुशरण से किया गये सभी कार्य बंधन का कारण  बनते हैं ..
अन्यथा जनक से  विदेह की पुत्री और स्वयं जगतपति श्री राम की संगिनी होकर भी सीता को रावण की कैद  में रहना पड़ा | क्या  कारण  था .....
क्योंकि सीता ने त्याग का अभ्यास न होने पर भी त्याग किया राजसी सुखों का ,क्योंकि हर माता अपनी पुत्री को यही सिखाती है पति का साथ कभी न छोड़ना | .सुख हो अथवा दुःख सदा आगे बढकर बाँट लेना | सीता जी ने माँ के इस वाक्य को ब्रह्म वाक्य बना लिया और इसके पालन में आने वाली किसी भी बाधा को नहीं माना |
फिर चाहे वो दशरथ का शोक हो अथवा राम का ये कहना कि मेरे यहाँ के कर्तव्य तुम ले लो ..........
लेकिन क्या वास्तव में सीता छोड़ पाई वो सब जो उनके जीवन के अभ्यास में रच बस गया था .? हमें लगता है नहीं क्योंकि सीता ने उन सुखों का त्याग नहीं किया था बल्कि कुछ समय के लिए उनसे दूर रहने का संकल्प लिया था | बिलकुल वैसे ही जैसे हम एकादशी करने का संकल्प करते हैं लेकिन मन में अगले दिन बनने वाले  प्रसाद की योजना तैयार होती रहती है | कुछ मित्रों को शायद ये भगवत मर्यादा का उलंघन  लग सकता है पर वास्तव में सीता जी को पूर्ण विश्वास था कि चौदह वर्षों की अवधि समाप्त होते ही हम अयोध्या लौटेंगे .अपने घर ,अपने वैभव में और उनका ये एक भाव ही उनकी सारी तपस्या पर भारी सिद्ध हुआ | अन्यथा 13 वर्ष तक सयंम रखने वाली सीता एक स्वर्ण मृग के मोह में कदापि न पड़ी होती !
उन्हें लगा अब वनवास की अवधि समाप्त होने वाली है हम अयोध्या लौटेंगे | तो साथ में वन प्रवास की कोई निशानी तो होनी चाहिए | और स्वर्ण मृग को देखते ही उन्हें वो उपयुक्त निशानी मिल  गयी जो वन प्रवास में प्राप्त हो और अयोध्या के वैभव के अनुरूप भी हो |
पर प्रभु तो सबके हित की सोचते हैं फिर भला मिथिला पति विदेहराज जनक की आत्मा  उनकी पुत्री सीता जिसे जनक ने बड़े विश्वास से अखिल ब्रह्मांड नायक भगवान श्री राम को सौंपा था उसका अहित कैसे होने देते ? परन्तु संसार को ये भी तो समझाना था कि क्षणिक इच्छाएं  कैसे विराट संकट का कारण  बन  जाती  है
और यही कहता है रामकथा का ये प्रसंग ...जय जय श्री राधे 

Monday, May 2, 2016

||ॐ शांति ||
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आज किसी मित्र ने एक कंजूस भिखारी की कहानी भेजी .सारी कहानी तो हमें याद नहीं पर कहानी का सारांश कुछ यूँ था कि कोई व्यक्ति सम्राट बनना चाहता था तो सम्राट जैसा वैभव इकट्ठा करने के लिए उसने भीख मांगना शुरू किया | दिन भर में उसे जो भी भीख मिलती उसे वह अपने घर के पास किसी जगह गड्ढे में छुपा देता था |इस प्रकार उसे बहुत साल बीत गये और वह अपने जमा धन का हिसाब किये बिना ही मर गया | ......
जब से यह कहानी पढ़ी है तब से मन में एक ही विचार बार बार आ रहा है कि यदि मुक्ति चाहिए .इस संसार सागर से बाहर निकलने की लगन बलवान है और वास्तव में हम परमधन को पाना चाहते हैं तो हमें भी अपने सुमिरन की पूंजी को
किसी ऐसे ही गहरे स्थान पर इकट्ठा करना होगा .जहाँ वो सदा थोडा ही दिखाई दे .और हम उसे भरने के लिए जीवन भर प्रयास करते रहें .हिसाब करने का भी अवसर न मिले | प्रभु में मिलने की हमारी प्यास भी उस कंजूस जैसी ही होनी चाहिए |
शुभ संकल्प .शुभ रात्रि
जय जय श्री राधे