Saturday, October 21, 2017

||ॐ ||
जय श्री कृष्णा
-----------------आज सुबह से बड़ी चहल पहल हो रही है | घर घर कन्यापूजन का उत्सव......सबको जल्दी ,पहले हमारे घर ,पहले हमारे घर ,क्योंकि नौ दिन भूखे
रहे हैं आज खूब अच्छे से पारायण करेंगे | कल रावण दहन और फिर दशहरा पूजन.......
सब खुश हैं लेकिन इस हृदय में बहुत ही ग्लानि उत्पन्न हो रही है .........
नवरात्र समाप्ति की ओर है ,और हमने इतना कीमती समय यूँ ही निकाल दिया |
बस गिनते रहे आज पांच शेष ,आज चार शेष | नवरात्र का समय मिला था दशानन
को कमजोर करने के लिए ताकि दसवे दिन सिर्फ दशानन बचे वो भी कमजोर और अकेला
तभी तो मुक्ति मिलेगी उसे भी और हमें भी ............
परम् ऐश्वर्यशाली भगवान को भी रावण को नष्ट करने के लिए योजना बनानी पड़ी.....
उसकी आसुरी शक्तियों को नष्ट किया ,उसकी शक्ति के स्रोत को सुखाया ,तब कहीं
जाकर दशानन वध संभव हुआ ..
दशानन वध के माध्यम से प्रभु हमें संदेश देना चाहते हैं कि इस मन रूपी दशानन से
जीतना इतना आसान नहीं है ,कुछ मदद मैं करता हूँ हनुमान रूपी गुरु को भेजकर कुछ प्रयास तुम करो ,नौ रात्रि अर्थात एक एक करके नौ इन्द्रियों पर विजय और जिसके
अंगरक्षक साथ ना हो उस राजा को हराना कौन बड़ी बात है | अकेला राजा कभी शासन
नही कर सकता | फिर दशानन की नगरी में विभीषन रूपी सत्य का शासन होगा |
जहाँ सत्य का शासन होता है वहां संत आगमन भी होता है |
संत जहाँ होते हैं वहां सत्संग भी होता है |
जब सत्संग होता है तो भक्ति आती है |
और जहाँ भक्ति होती है भगवान वहीं निवास करते हैं
दुःख की बात है कि प्रभु का ये संदेश समझने में बड़ा विलम्ब हो गया............
श्री हरि #जीवनअनुभवश्रीहरिप्रेरणासे

Tuesday, October 17, 2017

परम लाभ दिलानेवाले पंच पर्वों का पुंज : दीपावली......
भारतीय जनमानस में जैसे राम रमे हैं वैसे ही रमी है दीपावली ! मुख्य रूप से पांच दिन चलने वाला ये उत्सव इस्लाम को छोडकर हर सम्प्रदाय में किसी न किसी रूप में विद्यमान है ही ! जैन धर्म में इसे महावीर जी का निर्वाण दिवस मानते हैं तो सिक्ख इसे सिक्खों के छ्टवे गुरु श्री हरगोविंद जी की रिहाई के उपलक्ष्य में प्र्काशपर्व के रूप में मनाते हैं
जैन और सिख धर्म के साथ-साथ बौध धर्म के लोगों में भी दीपावली को लेकर अलग मान्यता है । इनकी मान्यता के अनुसार बौध धर्म के प्रवर्तक भगवान गौतम बुद्ध 17 साल बाद इसी दिन अपने अनुयायीयों के साथ अपने गृह नगर कपिलवस्तु पहुचें थे। इस अवसर पर बौध धर्म के अनुयायीयों ने लाखों दीप जलाकर उनका स्वगात किया था। तभी हर साल बौध धर्म के लोग इस दिन को धूम-धाम से मनाते है।
पोस्ट लम्बी हो जाएगी इसलिए अब आते हैं मूल विषय अर्थात हिन्दुओं में पंच पर्व का महत्व .
हिन्दुओं में दीपावली श्री राम के वनवास से अयोध्या लौटने के उपलक्ष्य में मनाई जाती है ये सर्व विदित और सर्वमान्य तथ्य है !
तर्क कुतर्क तो होते ही रहते हैं लेकिन आज कुछ चर्चा इन पंच पर्वों और श्रीराम के सम्बन्ध के व्यवहारिक पक्ष पर .....
जब श्री राम अयोध्या छोडकर गये तो उससे पहले अयोध्या में राम के राज्याभिषेक के लिए तैयारियां हो रही थी चहुँ और उत्सव का वातावरण था ! नगर में जहाँ तहां तोरण के लिए झंडियाँ, झालरें केले के तने आदि गाड़ियों से भरभर कर लाये जा रहे थे ! कहीं मार्गों को सजाने के लिए रंगों के पात्र भर भर कर रखे थे ! कहीं वस्त्रों के गट्ठर गाड़ियों में भरे हुए आ रहे थे ! पकवान बनने के लिए भंडार घर में नये नये खाद्य पदार्थ लाये जा रहे थे !
आचार्यों और देश विदेश के राजाओं के लिए सिंघासन सजाये जा रहे थे ! मार्गों को सुदृढ़ किया जा रहा था ! राम के राज्याभिषेक की तैयारियां युद्ध स्तर पर हो रही थीं और हों भी क्यों न भला ! चक्रवर्त्ती सम्राट राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र का राज्याभिषेक है !
इसे आप अपने घर में ही होने वाले किसी उत्सव की कल्पना करके समझ सकते हैं ! जब हम बिना किसी परिचय के इतना तामझाम जोड़ते हैं तो अयोध्या की तो बात ही क्या !
अयोध्या ,वही अयोध्या जो त्रिलोक विजयी रावण के रहते भी स्वतंत्र थी ! आप समझ सकते हैं अयोध्या क्या थी !
अब इतने बड़े उत्सव की रूपरेखा साकार होने ही लगी थी कि अकस्मात श्री राम का वन गमन और महाराज दशरथ का देहांत दोनों घटनाएँ इतनी आकस्मिक थीं कि किसी को कुछ सोचने समझने का अवसर ही नहीं मिला ! ये कुछ ऐसा था जैसे बारात आने की तैयारी हो और ......
आप समझ सकते हैं !
कहते हैं अयोध्या में श्री राम के जाने के बाद से वापिस लौटने तक मृत्यु के अतिरिक्त कोई संस्कार नहीं हुआ !
उत्सव की तैयारी के लाये गये सभी सामान जहाँ तहां पड़े पड़े कूड़े के ढेर में बदल गये !
लोग बस उनके लौटने की प्रतीक्षा में अपने प्राणों को रखे हुए थे ! इसके लिए सबका अपना तरीका था ! कहीं कोई सामजस्य नहीं था !
भरत जी धरती में गड्ढा खोदकर निवास कर रहे थे तो उर्मिला ने मौन तपस्या को माध्यम बना लिया था ! मांडवी माताओं की सेवा में रत थीं तो शत्रुघ्न और श्रुतकीर्ति ने राज्य और महल की व्यवस्था को बनाये रखने में ही स्वयं को होम कर दिया था !
कल्पना कीजिये जिस देश में चौदह वर्षों से कोई विवाह न हुआ हो कोई जन्म न हुआ हो ! कोई अतिथि न आया हो उस देश ,नगर और घर की हालत क्या हो गयी होगी ! ऐसे में जब हनुमान जी से भरत को राम- रावण के संग्राम की सूचना मिली तो मानों मुर्दों में स्पंदन लौटने लगे ! निराश से पड़े जनजीवन में चेतना लौटने लगी ! हनुमान जी तो चले गये संजीवनी बूटी लेकर लेकिन शत्रुघ्न जी ने अपने गुप्तचर उनके पीछे कर दिए ! वो युद्ध की प्रत्येक सूचना अयोध्या पहुंचा रहे थे ! जिस दिन रावण का वध हुआ ! उस दिन अयोध्या में पहली बार प्रजा का हर्षमिश्रित शोरगुल सुना गया !
अब श्री राम के लौटने की अवधि भी निकट आ रही थी ! लोगों ने पहली बार अपने आस पास दृष्टि डाली तो पता चला ये वो अयोध्या तो न रही जिसमें राम रहते थे ! जिसमें जनकनन्दिनी वधु बनकर आयीं थीं ! पूरा नगर कबाड़ के ढेर में बदल चुका था ! लोगों को स्वयं पर आक्रोश भी आया और ग्लानी भी !
बस फिर तो पूरे नगर को सजाने का वो महोत्सव जो चौदह वर्ष पहले बीच में ही खंडित हो गया था उसे पुन: आरम्भ किया गया !
नगर द्वार देहरियाँ सब सजने लगे !सबसे पहले वो सब सामग्री हटाई गयी जो श्रीराम के अचानक चले जाने से अयोध्या में मातम का संदेश दे रही थी ! फिर रंग रोगन आदि से घरों गलियों को साफ़ सुथरा बनाया गया ! लोगो ने पुरानी वस्तुओं को हटाकर नई नई वस्तुओं की खरीदा ! सूनी पड़ी अयोध्या में हाट बाजार जीवित होकर गुनगुना उठे ! मन्दिरों में घंटे घडियाल बजने लगे !
सरयू के घाट फिर जग पड़े !
जिसे नरकचौदस कहा गया उस दिन लोगों ने अयोध्या की सारी कालिमा को समेटकर सरयू में बहा दिया ! अयोध्या के साथ साथ अयोध्या का सारा जीवन रूपवान होकर चमचमा उठा ! माताओं ने अखंड दीपक जलाये ! और जाप आरम्भ हुए ! वो जानती हैं अब प्रार्थना की ज्यादा जरूरत है !
शायद अति उल्लास से भी डरती हैं कहीं अपनी ही नजर न लग जाये !
दीपावली की काली अंधियारी रात को इतना रोशन और जगमग कर दिया गया है कि विधाता को अपना पत्रा निकालकर निश्चित करना पडा कि आज अमावस्या ही है !
प्रतीक ये भी कि घोर निराशा में भगवान भी तभी आते हैं जब हम स्वागत के लिए उल्लास के दीये जलाये रखें !
अब थोडा आगे !!!!!!!!!!
आज भी यदि कोई यात्रा से लौटता है तो कुछ नियम हैं जिनका पालन सभी करते हैं ! तो राम जब लौटे तो रात्रि में स्वागत की प्रक्रिया ही इतनी लम्बी हो गयी कि पूरी रात्रि बीत गयी ! अगले दिन सबसे पहले श्रीराम को गौशाला में ले जाया गया जहाँ वो गुरुजनों और नगर वासियों के साथ मिलकर गौसंवर्धन का महत्व स्थापित करते हुए प्रभु का आभार प्रकट करते हैं ! आज भी भारतीय जन मानस में गौ को सबसे अधिक पूजनीय माना जाता है ! वो तो स्वयं श्रीराम का युग था ! आज भी जो किसी को एक पैसा न दे कहीं प्रणाम न करे वो भी गौसेवा कर लेता है कभी न कभी !
अब इतने लम्बे वन प्रवास और लौटने के उल्लास में भी एक आवश्यक घटक जो हमारी जीवन रेखा है छूट गया ! लेकिन भगवान श्रीराम को वो याद है ! और वो हैं अयोध्या की बेटियां !
हमारे समाज में पहले बेटियां विवाह के पश्चात जीवन भर मायके नहीं लौटती थी मायके वाले ही समय समय पर उनकी कुचल क्षेम पूछने के लिए जाया करते थे लेकिन चौदह वर्षों से अयोध्या की बेटियां भी तरस गयी हैं अपने भाइयों के दर्शन और कुशलता पाने को !
तब श्री राम ने गुरुजनों की आज्ञा लेकर समस्त राज्य के पुरुषों को ये संदेश भिजवाया कि आज के दिन जो भी भाई अपनी बहन के घर भोजन करेगा उसे यमराज का भी भय न रहेगा ! ये मेरा वचन है !
सब लोग हर्ष मिश्रित क्षमा याचना के साथ अपनी बहनों के घर गये हैं ! बहनें पक्के नारियल से उनकी नजर उतारकर कर उन्हें आशीर्वाद दे रहीं हैं !
क्योंकि इतने वर्षों बाद भाई अचानक आया है तो बहने भी हतप्रभ सी हैं ! क्या खिलाना है कहाँ बैठाना है कुछ समझ ही नहीं पा रही हैं !
ये पंच पर्व इतना साधारण नहीं है जितना दीखता है !
ये सनातन जन मानस का पूरा जीवन चरित्र स्वयं में समेटे हुए है !
समझें और गर्व करें अपनी संस्कृति पर !!!!
सादर नमो नारायण !

Sunday, October 15, 2017

विकल्प बहुत मिलेंगे, मार्ग भटकाने के लिए। संकल्प एक ही रखना, मंजिल तक जाने के लिए। अंबाला शहर की युवती वानी गोयल ने मंजिल पाने के लिए देसी गाय का सहारा लिया। जिस गाय को लोग सड़कों पर धक्के खाने के लिए छोड़ रही हैं, अब वानी उसी के गोबर से मंदिर और हर घर में प्रभु के नाम की जलने वाली ज्योत को तैयार कर रही है। उसने इसे नाम दिया है मंगलकारी ज्योत। यह ज्योत वह राजस्थान, दिल्ली, बेंगलुरू तक पहुंचा चुकी है।
इस ज्योत की खास बात यह है कि इससे घर की बीमारियों को भी दूर किया जा सकता है। क्योंकि इस ज्योत में न केवल गाय का गोबर बल्कि उस हवन सामग्री को भी मिलाया जाता है जोकि निरोग रहने के लिए आयुर्वेद में इस्तेमाल होती है। वानी का कहना है कि गोवंश को हम नहीं पालते बल्कि गोवंश हमें पालता है।
अंबाला शहर के जैन बाजार में रहने वाली 35 वर्षीय वानी गोयल को सात साल पहले वृदांवन में स्वामी राजेंद्र दास महाराज से देसी गोवंश को बचाने और बढ़ाने की प्रेरणा मिली। इसके बाद इन्होंने अपने घर के आसपास आने वाली बीमार व घायल गायों की सेवा करनी शुरू कर दी। गीताप्रेस गोरखपुर गोअंश से देखकर यह गायों का इलाज करने के साथ साथ ही साथ पेट दर्द और बुखार आदि होने पर उन्हें मानव के लिए इस्तेमाल होने वाली दवा देकर उनका इलाज करती है।
वर्ष 2017 में आया गाय के गोबर से ज्योत बनाने का आइडिया
वानी ने बताया कि वह अकसर सोचती थी कि गोमूत्र के साथ गोबर का इस्तेमाल इस तरह से हो कि उससे कमाई की जा सके। वर्ष 2017 में उनके मन में आया कि गाय के गोबर से ज्योत तैयार की जाए। इसके लिए उसने लोबान, देसी घी, अजवायन, गिलोय, गुगल, कपास इत्यादि गोबर में मिलाया और हाथ से ही ज्योत तैयार कर दी। इसके बाद इसका घर में ही इस्तेमाल कर देखा। सफलता मिलने पर उसने स्थानीय दुकानदारों को सैंपल दिए। हालांकि अभी यह काफी कम मात्रा में तैयार हो रहे हैं, लेकिन इसकी खपत शुरू हो गई है।
राख से फिल्टर कर रही पानी
वानी का कहना है कि गाय के गोबर से बनाए गए उपलों को जलाने के बाद जो राख बनती है, उससे पानी फिल्टर किया जाता है। जैन समुदाय ऐसे ही पानी पीता है। उन्होंने कहा कि गाय के गोबर की राख के पानी से फिल्टर किए गए पानी को बेशक लैब में चेक करा लिए जाए, राख वाला पानी आरओ से स्वच्छ होगा।
उन्होंने कहा कि वह जिस गाय को पाल रही है, वह खुद उनके दर चलकर आई थी। रोजाना आ जाती और घर में घुसने लगती। इसके बाद उन्होंने उसे अपने घर ही रख लिया। बाद में उसे लेने बहुत आए लेकिन वानी ने नहीं दिया। अब वह गोमूत्र से अर्क तैयार करने की विधि इजाद कर रही है।
त्योहार पर पूजा और आम दिनों में लाठी
वानी ने कहा कि गोपाष्टमी पर हम गायों को ढूंढते फिरते हैं। इतना ही नहीं सांझी के समय घर में गोबर लाते हैं। यही हालत दशहरे और गोवर्धन पूजा के दिन होता है, लेकिन बाकि दिनों में गाय को लाठी मारते हैं।

Friday, October 6, 2017

गोपी गीत (अर्थ सहित)
जयति तेsधिकं जन्मना ब्रज:श्रयत इन्द्रिरा शश्व दत्र हि
द्यति द्दश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते !!
भवार्थ - हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोको से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ़ गयी है तभी तो सौंदर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोडकर यहाँ की सेवा के लिए नित्य निरंतर निवास करने लगी है हे प्रियतम देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे है वन वन में भटक ढूँढ रही है.
!! शरदुदाशये साधु जातसत सरसिजोदरश्रीमुषा द्द्शा
सुरतनाथ तेsशुल्दासिका वरद निघ्न्तो नेह किं वधः !!
भवार्थ - हे हमारे प्रेम पूरित ह्रदय के स्वामी ! हम तो आपकी बिना मोल की दासी है तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौंदर्य को चुराने वाले नेत्रो से हमें घायल कर चुके हो. हे प्रिय !अस्त्रों से हत्या करना ही वध होता है, क्या इन नेत्रो से मरना हमारा वध करना नहीं है.
!! विषजलाप्ययाद व्यालराक्षसादवर्षमारुताद वैद्युतानलात
वृषमयात्मजाद विश्वतोभया द्दषभ ते वयं रक्षिता मुहु: !!
भवार्थ - हे पुरुष शिरोमणि ! यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खाने वाला अधासुर, इंद्र की वर्षा आकाशीय बिजली, आँधी रूप त्रिणावर्त, दावानल अग्नि, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से अलग-अलग समय पर सब प्रकार के भयो से तुमने बार-बार हमारी रक्षा की है.
!! न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरादृक
विखनसार्थितो, विश्वगुप्तये सख उदेयिवान सात्वतां कुले !!
भवार्थ - हे हमारे परम सखा ! आप केवल में यशोदा के ही पुत्र नहीं हो अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में अन्तस्थ साक्षी हैं.चूँकि भगवान ब्रह्मा ने आपसे अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए प्रार्धना की थी इसलिए अब आप यदुकुल में प्रकट हुए हैं.
!! विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संस्रृतेयात
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम !!
भवार्थ - हे वृषिणधूर्य ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा को पूर्ण करने में सबसे आगे हो जो लोग जन्म मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते है उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हो सबकी लालसा अभिलाषा को पूर्ण करने वाला वही करकमल जिससे तुमने लक्ष्मी जी के हाथ को पकडा है प्रिये, उसी कामना को पूर्ण करने वाले कर कमल को हमारे सिरों के ऊपर रखें.
!! ब्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मितः
भज सखे भवत्किंकरी: स्मनो जलरुहाननं चारू दर्शय !!
भवार्थ - हे वीर शिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम सभी व्रजवासियो के दुखो को दूर करने वाले हो तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान की एक झलक ही तुम्हारे भक्तो के सारे मान मद को चूर चूर करती है. हे मित्र ! हम से रूठो मत, प्रेम करो, हम तो तुम्हारी दासी है तुम्हारे चरणों में निछावर है, हम अबलाओ को अपना वह परम सुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ.
!! प्रणतदेहिनां पापकर्षनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम
फणिफणार्पितं तेपदाम्बुजं कृणु ‌कुचेषु नः, कृन्धि हृच्छयम् !!
भवार्थ - आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने वाले है. लक्ष्मी जी सौंदर्य और माधुर्य की खान है वह जिन चरणों को अपनी गोद में रखकर निहारा करती है वह कोमल चरण बछडो के पीछे-पीछे चल रहे है उन्ही चरणों को तुमने कालियानाग के शीश पर धारण किया था तुम्हारी विरह की वेदना से ह्रदय संतृप्त हो रहा है तुमसे मिलन की कामना हमें सता रही है, हे प्रियतम ! तुम उन शीतलता प्रदान करने वाले चरणों को हमारे जलते हुए वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की अग्नि को शान्त कर दो.
!! मधुरया गिरा वळ्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाssप्यायस्व न : !!
भवार्थ - हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है तुम्हारा एक-एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है बड़े-बड़े विद्वान तुम्हारी वाणी से मोहित होकर अपना सर्वस्व निछावर कर देते है उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी हम दासी मोहित हो रही है, हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधररस पिलाकर हमें जीवन दान दो.
!! तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडीतं कल्मषापहम्
श्रवणमंडगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये, भूरिदा जनाः !!
भवार्थ - आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत मेंकष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं. ज्ञानियों महात्माओ भक्तो कवियों ने
तुम्हारी लीलाओ का गुणगान किया है जो सारे पाप ताप को मिटाने वाली है जिसके सुनने मात्र से परम मंगल एवम परम कल्याण का दान देने वाली है तुम्हारी लीला कथा परम सुन्दर मधुर और कभी न समाप्त होने वाली है जो तुम्हारी लीला का गान करते है वह लोग वास्तव में मृत्यु लोक में सबसे बड़े दानी है.
! ! प्रहसितम् प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमंङगलम्
रहसि संविदो या हदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति ‍‌हि !!
भवार्थ - आपकी हँसी, आपकी मधुर प्रेम- भरी चितवन, आपके साथ हमारे द्वारा भोगी गई घनिष्ट लीलाएं तथा गुप्त वार्तालाप , इन सबका ध्यान करना मंगलकारी है.और ये हमारे ह्दयों को स्पर्श करती है उसके साथ ही, हे छलिया ! वे हमारे मनों को अतीव क्षुब्ध भी करती है.
!!चलसि यदब्रजाच्चारयन्पशून नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्
शिलतृणाडकुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः, कान्त गच्छति !!
भवार्थ - हे स्वामी, हे प्रियतम ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल और सुन्दर है जब आप गौवें चराने के लिए गाँव छोडकर जाते है तो हमारे मन इस विचार से विचलित हो उठते है कि कमल से भी अधिक सुन्दर आपके पाँवों में अनाज के नोकदार तिनके तथा घास- फूस एंव पौधे चुभ जाऐंगे. ये सोचकर ही हमारा मन बहुत वेचैन हो जाता है.
!! दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैवनरूहाननं विभ्रतवृतम्
धनरजवलं , दर्शयन्मुहुमनसि नः स्मरं वीर यच्छसि !!
भवार्थ - हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखती है कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलके लटक रही है, और गौओ के खुर से उड़ उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है तुम अपना वह मनोहारी सौंदर्य हमें दिखाकर हमारे ह्रदय को प्रेम पूरित करके मिलन की कामना उत्पन्न करते हो.
!! प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्ड़नं ध्येयमापदि
चरणपडकजं , शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन!!
भवार्थ - हे प्रियतम ! तुम ही हमारे दुखो को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तो की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली है, इन चरणों के ध्यान करने मात्र से सभी व्याधि शांत हो जाती है. हे प्यारे ! तुम अपने उन परम कल्याण स्वरुप चरण कमल हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा को शांत कर दो.
!! सुरतवर्धनं शोकनाशनं,स्वरितवेणुना सुष्ठुः चुम्वितम्
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेsधराम्रृतम !!
भवार्थ - हे वीर ! आप अपने होंठों के उस अमृत को हममें वितरित कीजिये जो माधुर्य हर्ष को बढाने वाला और शोक को मिटाने वाला है उसी अमृत का आस्वादन, आपकी ध्वनि करती हुई वंशी लेती है और लोगों को अन्य सारी आसक्तियां भुलवा देती है.
!! अटति यद्भवानहिनि काननं त्रुटियुगायते त्वामपश्यताम्
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृतद्दशाम् !!
भवार्थ - हे हमारे प्यारे ! दिन के समय तुम वन में विहार करने चले जाते हो तब तुम्हारे बिना हमारे लिए एक क्षण भी एक युग के समान हो जाता है और तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकावली से युक्त तुम्हारे सुन्दर मुखारविन्द को हम देखती है उस समय हमारी पलको का गिरना हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी होता है तब ऐसा महसूस होता है कि इन पलको को बनाने वाला विधाता मूर्ख है.
!! पतिसुतान्वयभातृबान्धवानतिविलडघ्य तेsन्त्यच्युतागताः
गतिविदस्तवोदगीत्मोहिताः कितब योषितः कस्त्यजेन्निशि !!
भवार्थ - हे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति, पुत्र, सभी भाई, बंधू, और कुल परिवार को त्यागकर उनकी इच्छा और आज्ञा का उल्लघन करके तुम्हारे पास आई है. हम तुम्हारी हर चाल को जानती, हर संकेत को समझती है. और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आई है हे कपटी इस प्रकार रात्रि को आई हुई युवतियों को तुम्हारे अलावा और कौन छोड सकता है.
!! रहसि संविदं हच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्
बृहदुर श्रियो, वीक्ष्य धाम ते मुहरतिस्पृहा, मुहयते मनः !!
भवार्थ - हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेमभाव जगाने वाली बाते किया करते थे हँसी मजाक करके हम छेड़ते थे तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देख्रकर मुस्करा देते थे तुम्हारा वक्षस्थल, जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निवास करती है, हे प्रिये! तब से अब तक निरंतर हमारी लालसा बढती ही जा रही है ओर हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है.
!! ब्रजवनौकसां ,व्यक्तिरडग ते वृजिनहन्त्र्यलंविश्वमंडगलम्
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहद्रुजां यन्निषूदनम !!
भवार्थ - हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति ब्रज वनवासियों के सम्पूर्ण दुख ताप को नष्ट करने वाली ओर विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है कुछ ऐसी औषधि प्रदान करो जो तुम्हारे भक्त्जनो के ह्रदय-रोग को सदा-सदा के लिए मिटा दे.
!! यत्ते सुजातचरणाम्बुरूहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिये दधीमहि ककशेषु
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित कूपापदिभिभ्रमतिधीर्भवदायुषां नः !!
भवार्थ - हे कृष्णा ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल है उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती है जिससे आपके कोमल चरणों में कही चोट न लग जाये उन्ही चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे हुए भटक रहे हो, क्या कंकण, पत्थर, काँटे, आदि की चोट लगने से आपके चरणों में पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही अचेत होती जा रही है. हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे हमारे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है हम तुम्हारे लिए ही जी रही है हम सिर्फ तुम्हारी ही है.
श्यामा प्यारी कुञ्ज बिहारी जै जै श्रीहरिदास दुलारी

Thursday, October 5, 2017

दुष्ट की मित्रता कहें !अथवा ये कहें कि  दुष्ट  मित्र  सदा  घातक  ही  होता  है  !
ये बात चाहे  जिस सन्दर्भ में रखी जाये हर स्थिति के लिए एक जैसी प्रभाशाली है ! आपके घर में, पड़ोस में कोई व्यक्ति हो सकता है इस दुष्ट प्रवृत्ति का ! जिसे यदि समय रहते न पहचाना जाये तो उसे सहन करना हमारी विवशता बन जाती है ! श्री राम चरितमानस के अरण्यकांड में बाबा तुलसी लिखते हैं ----

दसमुख गयउ जहाँ मारीचा !नाइ माथ स्वारथ रत नीचा !!

वो रावण जो कभी किसी के सामने न झुका वो आज मारीच के पास आया है स्वयं चलकर ! घोर आश्चर्य है और उससे भी बड़ा आश्चर्य कि आगे बढकर मारीच को सिर नवाकर प्रणाम भी कर रहा है !
हम मनुष्य होने का दम्भ भरते हैं ! पता नहीं कहाँ कहाँ की सूक्तियां ,लोकोक्तियाँ कंठस्थ किये फिरते हैं ! लेकिन व्यवहार में कुछ चतुराई विवेक दीख नहीं पड़ता !
कोई थोडा सा प्रभावशाली व्यक्ति भी हमसे मिलने आ जाये ! आ जाये क्या बुलवा कर दरवाजे पर ही खड़ा कर ले तो स्वयं को #जय विजय से ऊपर की चीज समझ बैठते हैं !
मारीच राक्षस कुल में उत्पन्न है ! घोर अघ योनी है ! राक्षस तो है ही इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है ! लेकिन मारीच का विवेक जाग्रत है ! वो दशानन को आया जानकर प्रत्यक्ष में तो प्रसन्नता व्यक्त करता है लेकिन उसका झुकना मारीच को सचेत कर देता है ! रावण का मारीच की गुफा पर आना मारीच के लिए प्रसन्नता नहीं अपितु चिंता का विषय है ! मारीच मन ही मन विचार करता है ------

नवनि नीच कै अति दुःखदाई ! जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई !!

नीच का झुकना भी उसी प्रकार दुखदायी होता है ! जैसे अंकुश ,धनुष सांप और बिल्ली !
ये सब जब जब झुकते हैं हानि ही देकर जाते हैं अर्थात ये शिकार पर घात लगाने के लिए ही झुके से प्रतीत होते हैं

भयदायक खल कै प्रिय बानी ! जिमि अकाल के कुसुम भवानी !!

भगवान शंकर माँ पार्वती को शत्रु के प्रति सचेत रहने की सीख देते हुए कहते हैं कि हे भवानी ! दुष्ट की मीठी वाणी भी उसी प्रकार भय देने वाली होती है ,जैसे बिना ऋतु के फूल !
इसलिए जिसकी प्रकृति से आप परिचित हैं उससे सावधान रहना चाहिए ! विशेष कर सर्प को भगवान समझ कर पूजाघर में स्थान नहीं देना चाहिए !
नमो नारायण !

लेखन स्वान्तः सुखाय है ! आप चाहें तो इसे देशके वर्तमान परिपेक्ष्य में रख कर पढ़ सकते हैं !














Tuesday, October 3, 2017

#राम लीला ...
साधारण से विशिष्ठ बनना सरल नही एक तप है । जैसे कल कहा जलन अच्छी है अगर हम किसी कि अच्छाइयों से जलकर उससे भी ज्यादा अच्छा बनना चाहें । सरल नही ये मार्ग पर असम्भव भी तो नही । समय के साथ साथ यदि हम अपनी कमियों को समझकर उनका अंत करते जाएँ तो अच्छे से और अच्छे होते जाते हैं । सोचो प्रतिदिन एक बुराई को भी खत्म करें तो 365 बुराइयों पर तो वर्षभर में विजय पा लें .....
~ बड़ी अद्भुत है विश्वामित्र और वशिष्ठ की कथा । विश्वामित्र वशिष्ठ को पराजित करने की मंशा त्याग आत्म-शुद्धि के अथक प्रयत्न में संलग्न हो गये जिससे रजस की वृत्ति सत्व में परिवर्तित हो सके । यह विश्वामित्र की स्वयँ पर पहली विजय थी पर स्वयँ को सिद्ध करने की उनकी इच्छा ही उनकी एकमेव प्रेरणा थी । उनके समक्ष था वशिष्ठ का ब्रह्म दंड जिसने ब्रह्मास्त्र को भी निगल लिया था । कठिन और लम्बी तपस्चर्या के उपरान्त भी विश्वामित्र सन्तुष्ट नहीं थे और दिन प्रति दिन अपनी तपस्या भीषण और भीषण करते जाते । प्रवृति पर अन्तर से बाहर की ओर पूर्ण विजय की जगह उनकी तपस्या एक हठयोग थी, एक बाल हठ जो दिन प्रति दिन दृढ़तर होती जाती । आखिर परेशान हो कर देवताओं ने उन्हें दिगभ्रमित करने मेनका को उनके समक्ष भेजा जिससे ऋषि के तपस्चर्या की परीक्षा हो सके । हठयोगी विश्वामित्र क्षण भर भी टिक ना पाये। मेनका ने तपस्वी विश्वामित्र को सम्मोहित कर लिया और वर्षों तक ऋषि उसी भ्रम में जीते रहे । सदा-सर्वदा के लिए यह उदाहरण बन गया, दृष्टान्त बन गया। आज भी कहते हैं - इस सम्मोहन से विश्वामित्र भी नहीं बच पाये, सामान्य मनुष्यों की क्या बिषात।
पर प्रत्येक भ्रम का कभी ना कभी अन्त तो होता ही है, विश्वामित्र भी मोह-निद्रा से जागे पर उन्होंने मेनका को क्षमा दान दिया । ऋषि ने स्वयँ को ही दोषी मान अपनी तपस्या को और कठिन करने का संकल्प लिया । यह ऋषि की स्वयँ पर दूसरी विजय थी। बड़ा सन्देश था विश्वामित्र के पुनर्प्रयासों में - अगर आत्मप्रेरणा हो तो मनुष्य की एक हार उसका अन्त नहीं होती ।
सहस्त्रों वर्षों की तपस्या के बाद जब विश्वामित्र परम-पद के पास जा पहुँचे तो आखिरी परीक्षा के रूप में इन्द्र के दरबार की रम्भा उनके समक्ष आयी । विश्वामित्र सम्मोहित या भ्रमित नहीं हुए पर क्रुद्ध हो उठे, जल उठे। मेनका के द्वारा प्राप्त पराजय की पीड़ा ज्वलन्त हो उठी। उन्होंने आवेश में अपने तेज की प्रखरता से उसे जड़ कर दिया और क्रोधातुर हो उसे भीषण शाप दिया । यह विश्वामित्र की पराजय थी, क्रोध ने उन्हें पुनः स्खलित कर दिया था । आवेश का, क्रोध का, उद्वेग का नियमन और नियंत्रण ना हुआ तो वह मनुष्य की हार है, पराजय है। नतमस्तक हो विश्वामित्र ने पराजय स्वीकार किया और पुष्कर धाम छोड़ हिमालय पर चले गए जहाँ उन्होंने विचार और स्वाँस त्याग कर तपस्चर्या की। एक राजा अपने संकल्प शक्ति और अनथक प्रयासों से महर्षि हो गया। उसने कठिनतम तपस्या से अपने गुण-धर्म, प्रवृति और संस्कार बदल लिये। आत्म-अवलोकन, आत्म-परिष्कार और आत्म -संशोधन से उन्होंने पूर्णता प्राप्त कर ब्रह्मा और देवों को संतुष्ट किया और आखिर ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया।
उन्हें सर्वप्रथम वशिष्ठ ने शुभकामना देते हुए एक महान ऋषि कहा और उनकी तपस्या को ब्रह्माण्ड में हुई कठिनतम तपस्या घोषित किया । वशिष्ठ द्वेष और प्रतिद्वंदिता से परे थे। महापुरुष कभी किसी से तुलना नहीं करते क्योंकि वे जानते हैं कि सृष्टि में प्रत्येक जीव अपने अस्तित्व, भाग्य, भवितव्य और विशिष्टता के साथ आता है अतः कोई किसी का विकल्प या प्रतिद्वंदी तो चाह कर भी नहीं बन सकता। राजा दशरथ के दरबार में विश्वामित्र द्वारा राम को आश्रम में ले जाने के आग्रह पर जब दशरथ तैयार नहीं हुए तो वशिष्ठ ने ही दशरथ को समझाया, " महाराज दशरथ ! विश्वामित्र मनुष्य रूप में तपस्या हैं, तीनो लोक में इनके समान योद्धा या तपस्वी कभी हुआ ही नहीं। मैंने स्वयँ इनके दिव्यास्त्रों की क्षमता का अनुभव किया है अतः राम इनके साथ पूर्णतः सुरक्षित हैं। ये स्वयँ समस्त राक्षसों के विनाश में सक्षम हैं पर यदि वे राम को माध्यम बनाना चाहते हैं तो इसमें नियन्ता ने कुछ शुभ संकेत छुपा रखा है। अतः राम को ऋषि के साथ भेजने में तनिक भी संकोच करना अनुचित है।" वशिष्ठ को विश्वामित्र की प्रसंशा करते हुए क्षणमात्र भी अपने पद, अस्तित्व, प्रतिष्ठा और पुरानी कटुता की चिन्ता नहीं हुई। यही सच्ची प्रतिभा और उत्कृष्टता का प्रथम लक्षण है।
साभार ..
#बिंदु जी की वाल से !

Sunday, October 1, 2017

बीती ताहिं बिसार दे .....................
आज के समय में बहुत ही भ्रम उत्पन्न हो गया है ! यूँ तो हर क्षेत्र में भ्रम का बोलबाला है लेकिन भारतीय इतिहास को लेकर नित नये भ्रम उत्पन्न हो रहे हैं ! हर रोज नये खुलासे होते हैं और कल तक जिसे सच समझ कर नतमस्तक हो रहे थे आज वही सबसे बड़ा झूंठ बनकर सामने खड़ा हो रहा है ! ये रोज रहा है !आज गाँधी जयंती है चार पांच साल पहले तक खूब जोर शोर से गाँधी जयंती मनती थी लेकिन अब पता चला कि हमने गलत आदमी की जयंती मना दी ! वो तो इस लायक था ही नहीं कि हम से राष्ट्रवादियों से सम्मान पा सके !
इस बात से हमें एक कहानी याद आ गयी सोचा आपसे शेयर कर लें !!!
किसी गाँव में एक पति पत्नी रहते थे ! आपस में बड़ा प्रेम था ! प्रेम था अथवा अंडरस्टेंडिंग थी ये तो परमात्मा ही जाने लेकिन आज तक किसी ने उनके घर से झगड़े की आवाज न सुनी थी ! आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी न थी लेकिन फिर भी !!!!
हमारी सबसे बड़ी समस्या हमारे अपने दुःख नहीं बल्कि दूसरे की ख़ुशी होती है!
लोग परेशान थे कि झगड़ा क्यों नहीं हो रहा ! कभी तो हो कुछ तो हो !
बस इसी बात को लेकर एक ठलुए ने शर्त लगा ली कि मैं इनमे झगड़ा करवाकर रहूँगा चाहे जो करना पड़े ! बस उसने बहाने बहाने से उस घर के पुरुष से मित्रता कर ली !
वो अच्छा मित्र बनने का प्रदर्शन करता और इस तरह उसने उन पति पत्नी को पूरे विश्वास में कर लिया ! वो दोनों उसे अपने घर के सदस्य की तरह मानने लगे ! यहाँ तक कि वो पति की अनुपस्थिति में भी बिना रोक टोक उनके घर आने लगा !!!!!!
एक दिन उसने अवसर देख कर उस व्यक्ति की पत्नी से कहा तुम्हारे पति के शरीर में नमक ही नमक है ! ऐसे लोग मिठास का दिखावा करते हैं जरा आँखें खुली रखा करो ! पत्नी बोली लेकिन वो बहुत अच्छे हैं और उसने अपनी अंगुली मुंह में रखी और बोली थोडा बहुत नमक तो होता ही है शरीर में ! उस आदमी  ने कहा कि वो केवल नमक से बना है विश्वास न हो तो आज जब वो सो जाये तो तुम जीभ लगाकर देख लेना ! पत्नी ने उसे झिडक दिया ! लेकिन !!!!!!!
उधर शाम को जब वो आदमी पति से मिला तो उसने कहा !यार एक बात कहनी थी ,यदि बुरा न मानो तो !

पति बोला हाँ हाँ बोलो संकोच कैसा ! तुम घर के आदमी हो ! 
तो उस आदमी ने थोडा और संकोच का दिखावा करते हुए कहा छोड़ो यार तुम बुरा मान जाओगे ! लेकिन बात है गम्भीर !
तब तो पति को और ज्यादा उत्सुकता हुई ! उसने कहा तुम निश्चिन्त होकर कहो ! मैं बुरा नहीं मानूंगा !
उसने कहा ! भाभीजी हैं ना ,,
पति थोडा चौकन्ना हुआ ! हाँ हाँ क्या हुआ उन्हें !
तो उसने कहा ,वो इच्छाधारी नागिन हैं ! तुम जरा चौकन्ने होकर सोया करो ! कहीं किसी दिन डस न लें !
पति ने उसे तो झिडक दिया लेकिन मन में भ्रम का बीज पड़ गया !
अब रात में जब वो सोने के लिए गये तो वो रोज जैसे दिखने पर भी पहले वाले पति पत्नी न थे ! शंका ने उन्हें बदल दिया था ! उस दिन पति ने कोई बात न की और सोने का बहाना करके आँख मूंदकर लेट गया ! पत्नी भी उसके सोने की प्रतीक्षा करने लगी ! लेकिन पति को  दहशत के मारे नींद ही नहीं आ रही थी लेकिन फिर भी वो सोने का अभिनय करता रहा ! उधर जब पत्नी को पक्का विश्वास हो गया कि पति गहरी नींद में है तो वो चुपके से घूमी और अपनी जीभ से जैसे ही पति के कंधे को चखना चाहा पति उठकर बैठ गया !!!!!!
अगले दिन पूरे गाँव ने उनके टूटते हुए घर का तमाशा देखा ! 
हम जीवित शत्रु का तो कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे हैं लेकिन अपने देश की नींव खोद खोदकर ईंट की गुणवत्ता जाँच रहे हैं ! दुर्भाग्य का विषय है कि हम राष्ट्र वाद के नाम पर अपने पूर्वजों को गालियाँ दे रहे हैं ! 
गेहूं के साथ घुन पिसता  है ये बात आज फिर सत्य सिद्ध हुई जब गाँधी विरोध में हम हमारे वीर प्रधान मंत्री स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी को भी भुला बैठे हैं ! 
न मनाये गाँधी जी का जन्म दिन ! वैसे भी क्या फर्क पड़ेगा ! वो जब शरीर में थे तो इस माटी का कर्ज चुका रहे थे ! अब जहाँ होंगे वहां जन्मदिन मना रहे होंगे ! 
लेकिन 60 साल बाद कोई अपने ही वंशज पर ऊँगली उठाये और वो भी कही सुनी को आधार बनाकर ! 
शर्मका विषय है !
2 अक्तूबर हमारे लिए शुभ दिन है ! गाँधी न सही #लालबहादुर जी को तो मानते ही होंगे अभी भी !
तिलक टिका और आज्ञाचक्र*
योग ने उस चक्र को जगाने के बहुत-बहुत प्रयोग किये है। उसमें तिलक भी एक प्रयोग है। स्‍मरण पूर्वक अगर चौबीस घण्‍टे उस चक्र पर बार-बार ध्‍यान को ले जाता है तो बड़े परिणाम आते है। अगर तिलक लगा हुआ है तो बार-बार ध्‍यान जाएगा। तिलक के लगते ही वह स्‍थान पृथक हो जाता है। वह बहुत सेंसिटिव स्‍थान है। अगर तिलक ठीक जगह लगा है तो आप हैरान होंगे, आपको उसकी याद करनी ही पड़ेगी, बहुत संवेदनशील जगह है। सम्‍भवत: शरीर में वि सर्वाधिक संवेदनशील जगह हे। उसकी संवेदनशीलता का स्‍पर्श करना, और वह भी खास चीजों से स्‍पर्श करने की विधि है जैसे चंदन का तिलक लगाना।
सैकड़ों और हजारों प्रयोगों के बाद तय किया था कि चन्‍दन का क्‍यों प्रयोग करना है। एक तरह की रैजोनेंस हे चंदन में। और उस स्‍थान की संवेदनशीलता में। चंदन का तिलक उस बिन्‍दु की संवेदनशीलता को और गहन करता है। और घना कर जाता है। हर कोई तिलक नहीं करेगा। कुछ चीजों के तिलक तो उसकी संवेदनशीलता को मार देंगे, बुरी तरह मार देंगे आज स्‍त्रियां टीका लगा रही है। बहुत से बाजारू टीके है वे उनकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है। उनका योग से कोई लेना देना नहीं है। वे बाजारू टीके नुकसान कर रहे है। वह नुकसान करेंगे।
सवाल यह है कि संवेदनशीलता को बढ़ाते है या घटाते है। अगर घटाते है संवेदनशीलता को तो नुकसान करेंगे, और बढ़ाते है तो फायदा करेंगे। और प्रत्‍येक चीज के अलग-अलग परिणाम है, इस जगत में छोटे से फर्क पड़ता है। इसको ध्‍यान में रखते हुए कुछ विशेष चीजें खोजी गयी थी। जिनका ही उपयोग किया जाए। यदि आज्ञा का चक्र संवेदनशील हो सके, सक्रिय हो सके तो आपके व्‍यक्‍तित्‍व में एक गरिमा और इन्‍टीग्रिटी आनी शुरू होगी। एक समग्रता पैदा होगी। आप एक जुट होने लगते है। कोई चीज आपके भीतर इकट्ठी हो जाती है। खण्‍ड-खण्‍ड नहीं अखण्‍ड हो जाती है।
इस संबंध में टीके के लिए भी पूछा है तो वह भी ख्‍याल में ले लेन चाहिए। तिलक से थोड़ा हटकर टीके को प्रयोग शुरू हुआ। विशेषकर स्‍त्रियों के लिए शुरू हुआ। उसका कारण वही था, योग का अनुभव काम कर रहा था। असल में स्‍त्रियों का आज्ञा चक्र बहुत कमजोर चक्र है—होगा ही। क्‍योंकि स्‍त्री का सारा व्यक्तित्व निर्मित किया गया है समर्पण के लिए। उसके सारे व्‍यक्‍तित्‍व की खूबी समर्पण की है। आज्ञा चक्र अगर उसका बहुत मजबूत हो तो समर्पण करना मुश्‍किल हो जाएगा। स्‍त्री के पास आज्ञा का चक्र बहुत कमजोर हे। असाधारण रूप से कमजोर है। इसलिए स्‍त्री सदा ही किसी का सहारा माँगती रहेगी। चाहे वह किसी रूप में हो। अपने पर खड़े होने का पूरा साहस नहीं जुटा पायेगी। कोई सहारा किसी के कन्‍धे पर हाथ, कोई आगे हो जाए कोई आज्ञा दे और वह मान ले इसमें उसे सुख मालूम पड़ेगा।
स्‍त्री के आज्ञा चक्र को सक्रिय बनाने के लिए अकेली कोशिश इस मुल्‍क में हुई है, और कहीं भी नहीं हुई। और वह कोशिश इसलिए थी कि अगर स्‍त्री का आज्ञा चक्र सक्रिय नहीं होता तो परलोक में उसकी कोई गति नहीं होती। साधना में उसकी कोई गति नहीं होती। उसके आज्ञा चक्र को तो स्‍थिर रूप से मजबूत करने की जरूरत है। लेकिन अगर यह आज्ञा चक्र साधारण रूप से मजबूत किया जाए तो उसके स्‍त्रैण होने में कमी पड़ेगी। और उसमें पुरुषत्व के गुण आने शुरू हो जायेंगे। इसलिए इस टीके को अनिवार्य रूप से उसके पति से जोड़ने की चेष्‍टा की गई। उसके जोड़ने का करण है।
इस टीके को सीधा नही रखा दिया गया उसके माथे पर, नहीं तो उसके स्‍त्रीत्‍व कम होगा। वह जितनी स्‍वनिर्भर होने लगेगी उतनी ही उसकी कमनीयता, उसका कौमार्य नष्‍ट हो जाएगा। वह दूसरे का सहारा खोजती है इसमें एक तरह की कोमलता हे। पर जब वह अपने सहारे खड़ी होगी तो एक तरह की कठोरता अनिवार्य हो जाएगी। तब बड़ी बारीकी से ख्‍याल किया गया कि उसको सीधा टीका लगा दिया जाए,नुकसान पहुँचेगा उसके व्‍यक्‍तित्‍व में,उसमे मां होने में बाधा पड़ेगी, उसके समर्पण में बाधा पड़ेगी। इसलिए उसकी आज्ञा को उसके पति से ही जोड़ने का समग्र प्रयास किया गया। इस तरह दोहरे फायदे होंगे। उसके स्‍त्रैण होने में अन्‍तर नहीं पड़ेगा। बल्‍कि अपने पति के प्रति ज्‍यादा अनुगत हो पायेगी। और फिर भी उसकी आज्ञा का चक्र सक्रिय हो सकेगा।
इसे ऐसा समझिए, आज्ञा का चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए, उसके विपरीत कभी नहीं जाता। चाहे गुरु से संबंधित कर दिया जाए तो गुरु के विपरीत कभी नही जाता। चाहे पति के संबंधित कर दिया जाए तो पति से विपरीत कभी नहीं जाता। आज्ञा चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत व्यक्तित्व नहीं जाता। अगर उस स्‍त्री के माथे पर ठीक जगह पर टीका है तो वह सिर्फ पति तो अनुगत हो सकेगी। शेष सारे जगत के प्रति वह सबल हो जाएगी। यह करीब-करीब स्‍थिति वैसी है अगर आप सम्‍मोहन के संबंध में कुछ समझते है तो इसे जल्‍दी समझ जायेंगे।
एक तरफ वह समर्पित होती है अपने पति के लिए। और दूसरी और शेष जगत के लिए मुक्‍त हो जाती है। अब उसके स्‍त्री तत्‍व के लिए कोई बाधा नहीं पड़ेगी। इसीलिए जैसे ही पति मर जाए टीका हटा दिया जाता है। वह इसलिए हटा दिया गया है। कि अब उसका किसी के प्रति भी अनुगत होने का कोई सवाल नहीं रहा।
लोगों को इस बात का कतई ख्‍याल नहीं है, उनको तो ख्‍याल है कि टीका पोंछ दिया,क्‍योंकि विधवा हो गयी। पोंछने को प्रयोजन है। अब उसके अनुगत होने को कोई सवाल नहीं रहा। सच तो यह है कि अब उसको पुरूष की भांति ही जीना पड़ेगा। अब उसमें जितनी स्‍वतंत्रता आ जाए, उतनी उसके जीवन के लिए हितकर होगी। जरा सा भी छिद्र बल्‍नरेबिलिटी का जरा सा भी छेद जहां से वह अनुगत हो सके वह हट जाए।
टीके का प्रयोग एक बहुत ही गहरा प्रयोग है। लेकिन ठीक जगह पर हो, ठीक वस्‍तु का हो। ठीक नियोजित ढंग से लगाया गया हो तो ही कार गार है अन्‍यथा बेमानी है। सजावट हो शृंगार हो उसका कोई मूल्‍य नहीं है। उसका कोई अर्थ नहीं है। तब वह सिर्फ औपचारिक घटना है। इसलिए पहली बार जब टीका लगया जाए तो उसका पूरा अनुष्‍ठान हे। और पहली दफा गुरु तिलक दे तब उसके पूरा अनुष्‍ठान से ही लगाया जाए। तो ही परिणामकारी होगा। अन्‍यथा परिणामकारी नहीं होगा।
आज सारी चींजे हमें व्यर्थ मालूम पड़ने लगी है। उनका कारण है। आज तो व्‍यर्थ है। क्‍योंकि उनके पीछे को कोई भी वैज्ञानिक रूप नहीं रहा है। सिर्फ उसकी खोल रह गयी है। जिसको हम घसीट रहे है। जिसको हम खींच रहे है, बेमन जिसके पीछे मन का कोई लगाव नहीं रह गया है। आत्‍मा को कोई भाव नहीं रह गया है, और उसके पीछे की पूरी वैज्ञानिकता का कोई सूत्र भी मौजूद नहीं है। वह आज्ञा चक्र है, इस संबंध में दो तीन बातें और समझ लेनी चाहिए क्‍योंकि यह काम आ सकती है। इसका उपयोग किया जा सकता है।
आज्ञा चक्र की जो रेखा है उस रेखा से ही जुड़ा हुआ हमारे मस्‍तिष्‍क का भाग है। इससे ही हमारा मस्‍तिष्‍क शुरू होता है। लेकिन अभी भी हमारे मस्‍तिष्‍क का आधा हिस्‍सा बेकार पडा हुआ है। साधारण:। हमारा जो प्रतिभाशाली से प्रतिभाशाली व्‍यक्‍ति होता है। जिसको हम जीनियस कहें, उसके भी केवल आधा ही मस्‍तिष्‍क काम करता है। आध काम नहीं करता। वैज्ञानिक बहुत परेशान है, फिजियोलाजिस्ट बहुत परेशान है कि यह आधी खोपड़ी का जो हिस्‍सा है, यह किसी भी काम में नहीं आता। अगर आपके इस आधे हिस्‍से को काटकर निकाल दिया जाए तो आपको पता भी नहीं चलेगा। कि कहीं कोई चीज कम हो गई है। क्‍योंकि उसका ता कभी उपयोग ही नहीं हुआ है, वहन होने के बारबार है।
लेकिन वैज्ञानिक जानते है प्रकृति कोई भी चीज व्‍यर्थ निर्मित नहीं करती। भूल होती है, एकाध आदमी के साथ हो सकती है। यह ता हर आदमी के साथ आधा मस्‍तिष्‍क खाली पडा हुआ है। बिलकुल निष्‍क्रिय पडा हुआ है। उसके कहीं कोई चहल पहल भी नहीं है। योग का कहना है कि वह जो आधा मस्‍तिष्‍क है वह आज्ञा चक्र के चलने के बाद शुरू होता है। आधा मस्‍तिष्‍क आज्ञा चक्र ने नीचे के चक्रों से जुड़ा है और आधा मस्‍तिष्‍क आज्ञा चक्र के ऊपर के चक्रों से जुड़ा हुआ है। नीचे के चक्र शुरू होत है तो आधा मस्‍तिष्‍क काम करता है और जब आज्ञा के ऊपर काम शुरू होता है तब आधा मस्‍तिष्‍क काम शुरू करता है।
इस संबंध में हमें ख्‍याल भी नहीं आता कि जब कोई चीज सक्रिय न हो जाए हम सोच भी नहीं सकते। सोचने का भी कोई उपाय नहीं है। जब कोई चीज सक्रिय होती तब हमें पता चला है।
मैं कहता आँखन देखी
ओशो