Friday, May 19, 2017

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।                            - (सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।).
बड़ी ही मंगलकामना है !जिसने भी ये प्रार्थना की होगी वो बड़ा ही सुखी व्यक्ति रहा होगा ! 
ध्यान  रहे मंगल कामनाएं  हमेशा  तृप्त  हृदय से ही  निकलती हैं ! दग्ध हृदयों से अहा अथवा तो प्यास निकलती है ! जिसके पास जो होगा वही दे सकेगा ! जिन्हें संसार  के पदार्थों की  कामना शेष रहती है वो गरीबों के झोपड़ों में जाते हैं लाव लश्कर के साथ ! और थोड़े अन्न -धन आदि के साथ अपनी अतृप्त कामनाएं भी अन्यों में फैला देते हैं ! फिर वही कामनाएं आपके दिए अन्न से पोषित होकर फलती फूलती हैं और और पाने की लालसा लिए इस हृदय से उस हृदय की यात्रा करती हैं ! ये अतृप्त कामनाएं जहाँ -जहाँ जाती हैं वहां वहां अपनी तरंगें प्रवाहित करती हुई नई नई कामनाओं का जाल बुनती हैं और परिणाम में दुःख छोड़ जाती हैं ! फिर कोई दूसरा दग्ध हृदय आशीर्वाद की कामना लिए उस #दुःखसागर के तट पर आ पहुंचता है ! ये प्रक्रिया अनवरत चल रही है ! सब दुखी हैं ,सब सुख ढूंढ रहे हैं ! और परिणाम में दुःख पा रहे हैं ! हर ओर अफरा -तफरी का माहौल है ! 
जहाँ एक व्यक्ति गया उसी के पीछे भीड़ इकट्ठी होकर दौड़ पड़ी है ! इसे मिला तो मुझे भी अवश्य ही मिलेगा ! 
ये संसार दुःख का बगीचा है ! जिसमें कामनाओं के बीज बोये जाते हैं तृष्णा से सींचे जाते हैं अतृप्ति की खाद  डाल-डाल कर भिन्न -भिन्न आकार, रूप -रंग के दुःख फूलों की शक्ल में खिल रहे हैं ! 
यही चक्र निरंतर चल रहा है ! !!
इसलिए रुकने से पहले ,मांगने से पहले यहाँ तक कि झोली उठाने से पहले विचार करो ! सोचो हम क्या चाहते है!यदि सुख की तलाश है तो कोई सुखी व्यक्ति ढूंडो ! 
सुखी व्यक्ति मानसरोवर सा होता है ! जितने डूबोगे उतने ही तृप्त होते जाओगे ! क्योंकि वो अपने आप में परिपूर्ण है ! वहां तुम्हारी अतृप्ति के लिए कोई ठौर नहीं ! आप अतृप्ति दो वो मिलते ही तृप्ति में बदल जाएगी ! आप अग्नि ले जाओ वो राख हो जाएगी ! आप अंजुरी भर पी लो ! आँख से ,कान से .आपके दग्ध हृदय की ज्वाला सुख में बदल जाएगी ! फिर आपभी उस मानसरोवर का ही एक भाग होंगे ! फिर वही काम आप भी कर सकेंगे जो उसने किया ! और इस तरह  कड़ी से कड़ी जुड़ती चली जाये तो फिर इस बगीचे के फूलों का स्वभाव बदलने लगेगा !

सर्वे भवन्तु सुखिनः !!

Friday, May 12, 2017

 एक ज्वलंत प्रश्न --
"अपेक्षाएँ दुख का कारण होती हैं"
सही बात है परंतु सवाल ये है कि क्या अपेक्षा करने के इस स्वभाव को त्याग सकते हैं अगर सामाजिक ताने बाने में रहना है?
जाग्रत उत्तर -
Vijay Nanda यदि राजा जनक जैसा आचार विचार हो तभी यह संभव है वरना मोहमाया के विराट जंजाल से निकल पाना नामुमकिन है आप भिखारी को भीख देते समय भी एक आस रखते है दिल के किसी कोने में कि इसकी दुआ मिलेगी
वर्तमान दौर में देखे तो साधु संत भी किसी ना किसी आस में प्रवचन दे
रहे है
तो बहनजी यह सोचना कि समाज में रहकर वगैर आस के कोई भी इंसान कोई भी कर्म का निर्वहन कर रहा है एक भयानक भूल होगी
यह मेरा निजी विचार है
माता पिता का वंश विस्तार चाहना क्या है एक आस ही तो है कि मेरा वंश आगे बढ़ेगा राजा दशरथ भी इससे अछूते नही रहे
आस किसी भी प्रकार की हो सकती है मान मर्यादा की भूख , तारीफ की भूख , नाम की भूख , वासना की भूख , प्रेम की भूख ,अर्थाथ इंसान किसी ना किसी रूप में आस के समुंदर में समाया हुआ है

 Ajit Pathak-------
आशा हि परमं दु:खम ; नैराशयं परमं सु:खम ।। सभी दुखों का मूल कारण आशा यानि अपेक्षा ही है , ईस जगत के प्रति हमें नैराश्य ही रहना चाहिये । सुख का मूल कारण यही है अपेक्षा रहित । 
 
! लेकिन प्रश्न ये है कि क्या अपेक्षाओं को त्याग कर सह अस्तित्व के सिद्धांत का पालन हो सकता है . 
 
Ajit Pathak अस्ततित्व कैसा और किसका ,,, ईस शरीर का : जो नश्वर एवं मिथ्या है । और सत्य स्वरुप आत्मा तो स्वयं में सर्व अस्तित्व संपन्न है फिर उसे क्या जरुरत । । और जीव त्रिगुणात्मिका माया से वशीभूत हो , हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश से कभी दुखी तो कभी सुखी हो जाता है  
ये सब माया के अंतर्गत होने के नाते असत्यवत ही है । विशुद्ध रुप परमात्मा भगवान श्री कृष्ण के चरण कमल आश्रित जीव ईन सभी मायिक बंधनों से स्वत: मुक्त हो जाता है । और शरणागति होने के कारण सारे मूलभुत सिद्धांत एवं सारे भगवद गुण आ जाने के कारण वो सभी अवस्थाओं से परे हो जाता है । पर ,,,,,, सोई जानहिं जेहि देहु जनाई । जानत तुम्हहिं तुम्हहि होई जाई ।। श्री राधे ।।

बहुत ही अच्छा विवेचन ! लेकिन ये स्थूल दुनिया शरीरों से बनी है और सहस्तित्व का प्रश्न शरीरों के लिए ही रखा गया है !  
 -Anil Pradhan पहले हमें कृपया यह तय करना है कि हमें सत्य की ओर चलना है या क्षमा करिएगा दुनियां में रहना है या रहते हुए अपने मार्ग की ओर कदम बढ़ाने है।।
 Anil Pradhan होइहि सोइ जो राम रचि राखा
को करे तरक बढ़ावे साखा

स्वयं को शरीर मानने में ही उलझना है। अपेक्षाओं को त्याग कर भी सह-अस्तित्व के सिद्धांत का पालन हो सकता है।।
उसके लिए स्वयं को जीवन्मुक्त आत्मा मानकर एक दृष्टा की भाँति व्यव्हारित होना पड़ेगा।।
जिस हेतु स्थितप्रज्ञ की अवस्था में रहना आवश्यक है।।

स्वयं दृश्य बनने पर अटकना है।।

जो जैसा है उसे वैसा ही मानना लेकिन दृश्य में आसक्त न होना।
उमा कहहुँ मैं अनुभव अपना
सत हरि भजन जगत सब सपना

चरैवेति चरैवेति प्रचलामि निरन्तर ||
Ajit Pathak अपेक्षा निभाना ही परेगा यही तो माया है जिस दिन ये द्ंव्द खत्म हो जायेगी कि वास्तविक में सर्वरुप श्री हरि ही हैं तो हमारा कर्म स्वत: निष्काम हो जायेगा अथवा समस्त कर्म परमात्मा श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए होगा । अर्थात माता पिता पुत्र पुत्री स्वजन सभी के रुप मे श्री हरि हि विद्यमान है उनकी सेवा भी श्री हरि सेवा है , ऐसा समझकर हम यहां रहते हुए भी अपेक्षारहित जीवन जी सकते हैं और कर्मफल के बंधनों से भी मुक्त हो सकते हैं । जय जय श्री राधे
स्थूल जगत और सुक्ष्म जगत में थोङा थोङा भेद है ं। सूक्ष्म शरीर और जगत भी मायायुक्त ही है । माया युक्त जीव ईसी स्थूल जगत और शरीर के लिए अपेक्षाए रखता है और कर्म करता है । और जो थोङा बहुत ज्ञानी है वो स्थूल को मायिक मानते हुए परलोक और सूक्ष्म जगत के लिए आपेक्षित हो कर्म करता है और वो भी नित्य आनंद न पाकर कर्मफल भोग दुखी ही हो जाता है और पतन करवा लेता है । यहां तो ईन सबसे परे श्री कृष्ण भक्ति ही करनी चाहिये । न कोई आशा न कोई अपेक्षा मान अपमान से परे सब में श्री हरि को देखते हुए वात विवाद से बचते हुए , श्री हरि की चिंतन करनी चाहिये । फिर ईस शरीर के लिए प्रश्न हि क्या बचेगा । जो हो हरि कृपा ।। जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये ।

! आपकी बात अक्षरशः सत्य है ! लेकिन दुनियां का सिद्धांत इसमें बाधक है ! वो कहती है आप मुझसे अपेक्षा न रखें ये आप की बात !! लेकिन जब तक आप यहाँ हैं आपको हमारी अपेक्षाओं से निभाना ही पड़ेगा !
 
    शरीर के लिए प्रश्न कैसा ?? जो नाशवान है , क्षणिक है , विद्वान उस चक्कर में नहीं परते । जो नित्य है सत्य है शास्वत है मुक्त है परमात्मा का अंश है वो परमात्मा तक कैसे पहुंचे ,, अति सुगम क्या मार्ग हो वहां तक पहुंचने के लिए हमें ईन प्रश्नों का हल ढुंढना चाहिये । मुझ अल्पमति को तो श्री हरि ने यही सुझाया है । जय जय श्री राधे ।
 
Ajit Pathak या सभी संसारी जनों को मायावत मान सभी से परे होकर एककांत श्री कृष्ण चिंतन ही करना चाहिये । वही मायापति हैं उन्ही की ईच्छा से माया भागेगी अन्यथा स्वत: कुछ नहीं होगा । दैवीह्रोषागुणमयी मम माया दुरत्यया । मामैव ये प्रपद्यंते मायार्मेतां तरंतिते ।। गीता ।।   
                     
आज कितने दिनों में आपकी दिव्य वाणी का रसास्वादन मिला !जय हो ! 🙏🙏                                                    
 अब आप ही कहें ! इस सुंदर सत्संग की अपेक्षा कोई छोड़ सकता है ! हमें आपसे यही अपेक्षा थी ! धन्य घडी सोई जब सतसंगा ..
सतसंगति के समान तो और कुछ भी नहीं । संतसंगति अति दुर्लभं । मुक्ति पाना आसान हो सकता है पर सत्संग का एक क्षण मिलना भी अति दुर्लभ ।
विन सत्संग विवेक न होई । राम कृपा विन सुलभ न सोई ।।
विषय को त्याग केवल श्री हरि चर्चा ही कलि में श्रेष्टतम है । उमा कहहुं वे लोग अभागी । हरिपद छोङ विषय अनुरागी ।। श्री राधे ।।
Anil Pradhan मुखों पवित्रं यदि राम नामं
हृदयो पवित्रं यदि ब्रह्म ज्ञानं
चरणौ पवित्रं यदि तीर्थ गमनं

हस्तौ पवित्रं यदि पुण्य दानं

धन्य घड़ी सोइ जब सत्संगा
धन्य जनम द्विज भगति अभंगा

अब मोहि भा भरोस हनुमंता....
बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता....
विषय को त्याग केवल

श्री हरि
चर्चा ही कलि में श्रेष्टतम है ।
उमा कहहुं वे लोग अभागी ।
हरिपद छोङ विषय अनुरागी ।। श्री राधे ।।

     Ajit Pathak जय हो जय हो । मुख से कर गुणगान ,, ह्रदय में रख श्री कृष्ण रति । चरण से धाम हस्त से दान ,, कब समझेगा मंदमति ।। श्री हरि से यही प्रार्थना हैं 
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इति वार्ता :
जय जय श्री राधे गोविन्द .

 

Monday, May 8, 2017

!!ॐ शांति !!
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बड़ी पुरानी बात है एक गृहस्थ सन्यासी के पास एक युवक पहुंचा ! गृहस्थ इसलिए कि वो घर छोडकर जंगल में न गये थे ! तो युवक उनके पास पहुंचा और हाथ जोडकर बोला ! आपसे कुछ सलाह लेनी थी ! संत ने पूछा तुम्हें गांव भर में कोई न मिला जो यहाँ चले आये ! युवक ने कहा - क्योंकि आप बुजुर्ग हैं जीवन में अच्छे बुरे का फर्क भी जानते हैं ! आपने एक लम्बा जीवन जिया है ! मैं एक विकट परिस्थिति में उलझ गया हूँ ! सम्भव है आप भी कभी ऐसी परिस्थिति में पड़े हों !
सो समाधान की सम्भावना आपके पास ज्यादा है ! यूँ तो मैं किसी से भी कहूँगा अपनी बात , तो कई समाधान मिल जायेंगे ! लेकिन मैं चाहता हूँ कि आपसे पूछूँ !
कल कुछ ऊंच -नीच हो तो मुझे तसल्ली रहे कि ये मेरा अकेले का निर्णय न था ! मैं कह सकूँगा कि फलां शख्स से तो पूछा था और उन्होंने हाँ ही कहा था !
आप अनुमति दें तो कुछ कहूँ ?
युवक ने कहना शुरू किया -बात बड़ी अटपटी सी है ! थोड़ी टेढ़ी भी है सो कहने में लज्जा आती है ! बात ये है कि एक परायी स्त्री है ! वैसे तो सारी स्त्रियाँ पराई ही होती हैं लेकिन ये इसलिए ज्यादा पराई है क्योंकि वो किसी और की पत्नी है ! और उसी पराये घर में रहती है ! हम दोनों को परस्पर प्रेम है और हम चाहते हैं अपने इस सम्बन्ध को थोडा और बढ़ा लें ! तो आपका इस विषय में क्या सुझाव है ? बढ़ जाऊँ आगे ?
सन्यासी ने गौर से उस युवक को देखा !और कहना शुरू किया !
मोती की दुकान में कोयला पूछ रहे हो !युवक थोडा घबडाया ! फिर बोला वो पराई है न इसलिए !!!
केवल स्त्री ही क्यों ? पराये तो तुम भी हो उस स्त्री के लिए ये प्रश्न उस स्त्री के लिए भी उतना ही जरुरी है बल्कि उसके लिए ही ज्यादा जरूरी है ! सोचता हूँ कितनी घातक होगी वो स्त्री जो किसी पराये पुरुष को ऐसा प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित कर रही हैं .युवक ने थोड़ी हिम्मत से कहा ! आप दोनों के बारे में ही कहें !
सन्यासी को लगा आज सुबह किसका मुंह देखा जो ऐसी चर्चा का कुअवसर हुआ !
जब दो लोग भ्रष्ट होने के लिए तैयार हो ही गये हो तो तीसरा क्या करेगा .
यदि जगे हुए होते तो ये प्रश्न ही न होता .
कोई आपको जहर पिलाना चाहता है तो आप किसी और से पूछकर निर्णय करेंगे ?
फिर भी यदि आप हाँ कहें तो !
जब विष का प्रभाव सर्व विदित है तो किसी के हाँ ना का क्या औचित्य !
क्या हमारे हाँ कहने से पहले आपने उस पराई स्त्री को राजी न किया होगा .
और यदि किया है तो ये प्रश्न किसी तीसरे की अदालत में क्यों .
इमानदारी अपनी अदालत में हो तो न्याय होता है .
फिर भी बार बार पूछे जाते हो ! क्यों ?
जो स्त्री अपने घर में संतुष्ट न हुई वो सूर्पनखा कहलाती है .
और वो पहला शिकार अपने आश्रय दाता को ही बनाती है .
आप बुद्धिमान है ,स्वतंत्र है .
जो रुचे सो करें !!!!!!
हम सब यही कर रहे हैं ,उचित अनुचित सब जानते हैं !परिणाम से परिचित हैं !
फिर भी पूछे चले जाते हैं !
महात्माओं से ,गुरुओं से !पंडितों से !
और कभी कभी तो परमात्मा से भी !
तू कहे तो मैं कहूँ 

#जीवनअनुभव 

Sunday, May 7, 2017

स्वयं से मिलना हो सकता है एक सुखद संयोग
पर तुमसे मिलना,कतई नहीं
यूँ तुम्हारा अंतस में समा जाना

अवश्य ही सुनिश्चित योजना रही होगी
उन आसमानों के फ़रिश्तों की
वरना कहाँ यूँ कोई आकर
ज़मीन के इंसा से मिला करता है
जीने का पवित्र पावन उद्देश्य सहसा ही मिल गया
बिखरा बिखरा सा जीवन,नीरस इक इक पल अव्यवस्थित
इक प्रेम-डोर में बँध सरस उल्लासित
मन पिघलने लगा, बूँद बूँद सिमटने लगा
बदल गई जमीं, बदल गया आसमान
बिना तुम्हारे बहुत अकेली हूँ
स्वयं में ही सिमटी रहती हूँ
जो कुछ दूर चलकर साथ छोड़ दे
उसके बिना चल पाना मुमकिन नहीं है
इंतज़ार ही उम्र भर का साथी बन गया है
मैं चल रही हूँ पर ये 'मन' ठहर गया है।

डॉ मंजु गुप्ता