Thursday, October 20, 2016

तुलसी की नारी ताडऩ की नही ”तारन” की अधिकारी है
तुलसी के राम बाल्मीकि के राम से कई रूपों में भिन्न हैं। ऐसा प्रक्षेपों के कारण तो हुआ ही है साथ ही अर्थ का अनर्थ कर देने से भी हुआ है। असंगत अर्थों को और अतार्किक बातों को हमने पत्थर की लकीर मान लिया और लकीर के फकीर बनकर उन असंगत अर्थों को तोता की तरह रटते जा रहे हैं। इससे मर्यादा पुरूषोत्तम रामचंद्र जी महाराज के महान व्यक्तित्व की कई स्थलों पर महिमा और गरिमा घटी है। लेकिन व्याख्याकारों को इससे क्या लेना देना है कि उनकी व्याख्या से किसी की महिमा घट रही है, उन्हें तो अपनी बात कहनी है-अब समाज पर उसकी जो प्रतिक्रिया हो वो होती रहे?
तुलसीदास जी और सूरदास जी का भारतीय संस्कृति की रक्षा में अनुपम योगदान है। इन दोनों महान कवियों ने राम और कृष्ण को उस समय भारतीय जनमानस में भगवान के रूप में स्थापित किया, जब ईसाई ईसा को और मुस्लिम मौहम्मद साहब को, महामानव के रूप में स्थापित कर रहे थे और हिंदुओं के समक्ष एक चुनौती पेश कर रहे थे कि तुम्हारे पास क्या है? तब युगीन आवश्यकता के रूप में इन दोनों कवियों ने राम और कृष्ण की स्तुति में ग्रंथ लिखे और चमत्कारों के नाम पर इन महापुरूर्षों के साथ कई अलौकिक बातें जोड़ दीं। बाद में कुछ और प्रक्षेप कर इन ग्रंथों को विकृत किया गया। अत: इन दोनों कवियों के कारण राम और कृष्ण तो पूज्यनीय हो गये लेकिन भारतीय धर्म का वैज्ञानिक स्वरूप गंदला हो गया। जरा देखें तुलसी पर आरोप है कि उन्हेांने नारी को 'ताडऩ' की अधिकारी कहा है। इस बात को कितने ही लोगों ने अपने अपने लेखों में उदृत किया है, और नारी जाति को पांव की जूती सिद्घ करने के लिए बार बार तुलसी को उदृत किया है। फलस्वरूप समाज में यह धारणा रूढ़ हो गयी कि तुलसी नारी जाति के शत्रु थे। सचमुच इस धारणा से नारी जाति पर कई प्रकार के अत्याचार बढ़े।
स्मरण रहे किसी कवि या लेखक का अपने ग्रंथ का कोई प्रतिपाद्य विषय अनिवार्यत: होता है। वह उस अपने प्रतिपाद्य विषय से अपने पाठकों को जितना बांधे रखेगा और जितनी युक्तियों का ढेर उस विषय की सिद्घि के लिए लगा देगा उतना ही वह अपने पाठकों के साथ और विषय के साथ न्याय करने में सफल होगा। यदि वह अपने प्रतिपाद्य विषय से भटकता है या पहले तो उसके पक्ष में तर्क देता है और बाद में अपने ही तर्कों का खण्डन करता है तो दो बातें हो सकती हैं-एक तो ये कि वह कवि अथवा लेखक कोई चिंतनशील व्यक्ति नही है, और दूसरे यह भी संभव है कि उसके ग्रंथ में किसी अन्य ने मिलावट कर दी है। विद्वान लोग प्रक्षेपों को इन्हीं युक्तियों के आधार पर ही पकड़ते हैं।
अब तुलसीदास जी की रामचरित मानस को आप लें, और देखें कि उन्होंने नारी जाति के लिए अन्यत्र भी ऐसी अशोभनीय धर्मविरूद्घ और नीति विरूद्घ बातें कही हैं या एक ही स्थान पर ऐसा कहा है? अन्य स्थानों पर हम देखते हैं कि तुलसीदास जी ने नारी को पुरूष की पूरक ही माना है। वेद के शब्दों में उसे पति की पोष्या ही स्वीकार किया है। उन्होंने युग धर्म (जमाने के दौर) के अनुसार पोष्या को दासी शब्द से बांधा है, लेकिन दासी का अर्थ कहीं भी पांव की जूती या ताडऩा की अधिकारी के रूप में प्रयुक्त नही हुआ है। भक्त भगवान का दास है तो उसका अभिप्राय ये नही है कि वह भगवान की ताडऩा अर्थात दण्ड का अधिकारी हो जाता है, बल्कि इसका अभिप्राय है कि वह ईश्वर की करूणा का, तारन का, त्राण का अधिकारी हो गया है, ऐसा माना जाता है। तुलसीदास जी ने भी ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी को तारन का अधिकारी कहा है। ताडऩ शब्द तारन के स्थान पर प्रक्षिप्त हो गया है। वैसे भी हिंदी की 'र' 'ड़' में और 'ड़' 'र' में स्थान-2 पर परिवर्तित हो जाती है।
अब हम इस विषय में थोड़ा रामचरित मानस में तुलसीदास जी के नारी जाति के प्रति दृष्टि कोण पर विचार करते हैं।
बालकाण्ड (121) में श्रीराम के जन्म लेने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम असुरों को मारकर देवताओं को राज्य देते हैं और अपनी बांधी हुए वेद मर्यादा की रक्षा करते हैं।
यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि राम वेद मर्यादा का निरूपण करते हैं, अत: राम वेद मर्यादा के रक्षक सिद्घ हुए। वेद पत्नी की मर्यादा का निरूपण करते हुए स्पष्ट करता है:-
त्वं सम्राज्ञयेधि पत्युरस्तं परेत्य (अथर्व 14/1/43) अर्थात पति के घर जाकर पत्नी घर की महारानी हो जाती है। पत्नी को गृहस्वामिनी कहने की परंपरा भारत में आज तक है। ये परंपरा वेद की ही देन है। करोड़ों वर्ष से हम इस व्यवस्था में जी रहे हैं और इसे ही मान रहे हैं। पत्नी को देहात में घरवाली भी कहा जाता है, उस शब्द का अर्थ भी गृहस्वामिनी ही मानना और जानना अभिप्रेत है। अथर्ववेद (अथर्व 14/1/27) में पति को पत्नी की कमाई खाने से निषिद्घ किया गया है। अत: वेद का निर्देश है कि पति ही पत्नी का पोषण करेगा। वह उसकी कमाई नही खाएगा। यदि तुलसी के राम इसी मर्यादा के रक्षक हैं तो उनके लिए नारी 'तारन' की अधिकारिणी ही सिद्घ होती है।
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राम अहिल्या के तारक हैं ताड़क नही
दशरथनंदन श्रीराम के साथ अहिल्या का जो प्रसंग जोड़ा गया है, यदि उसे सर्वथा उसी रूप में सत्य मान लिया जाए जिस रूप में उसका उल्लेख किया गया है तो भी राम नारी के तारक अर्थात उद्घारक ही सिद्घ हुए। तुलसी का अभिप्राय भी अपने चरितनायक से नारी की ताडऩा कराना नही अपितु तारना कराना ही सिद्घ होता है। अहिल्या राम से कहती है:-
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनाहि आई।
अर्थात-मैं अपवित्र स्त्री हूं और आप जगत को पवित्र करने वाले, रावण के शुत्र और भक्तों को सुख देने वाले हैं। हे कमल नयन! हे संसार के दुख करने वाले, मैं आपकी शरण में हूं मेरी रक्षा कीजिए।
तुलसी की अहिल्या प्रभु राम से रक्षा (तारना, त्राण, कल्याण) मांग रही है और प्रभु राम उसे वही दे रहे हैं। राम ने अहिल्या की ताडऩा नही की, अपितु उसकी तारना की और वह त्राण पाकर सकुशल पतिलोक को चली गयी। तुलसीदास ने वेद की मर्यादा के अनुसार यहां भी नारी जाति के प्रति राम का और अपना सही दृष्टिकोण ही प्रदर्शित किया है।
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नारियों के समान अधिकार थे
रामचरितमानस के अनुसार भी रामायण काल में स्त्रियों को पुरूष के समान ही अधिकार प्राप्त थे। जब जनक जी के यहां से दशरथ सुकुमारों के विवाह की पत्रिका (चिट्ठी) आती है तो राजा दशरथ के लिए रामचरितमानस में आया है-
'राजा सबु रनिवास बोलाई
जनक पत्रिका बांचि सुनाई।'
अर्थात राजा दशरथ ने सारे रनिवास को बुलाया और जनक जी की विवाह पत्रिका को पढ़कर सबको सुनाया। यदि नारी के प्रति उपेक्षात्मक, उत्पीडऩात्मक और दमनात्मक दृष्टिकोण उस समय के पुरूष का होता तो राजा कदापि रनिवास को बुलाकर विवाह पत्रिका नही सुनाते। लेकिन इतने शुभ मुहूर्त के समय राजा ने रनिवास को पूर्ण सम्मान देकर वेद की विवाह मर्यादा का पालन किया। नारी के प्रति अपने सहज दायित्व का निर्वाह राजा ने किया। रानियों ने विवाह पत्रिका को सुनकर बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की।
वेद विधान से विवाह संपन्न हुआ था
राम और सीता के स्वयंवर के विषय में तुलसीदास जी ने कहा है कि--
करि लोक बेद विधानु कन्या दानु नृत्य भूषन कियो। अर्थात राजा जनक ने लोक और वेद की विधि से कन्यादान किया।
इसका अभिप्राय है रामचंद्र के विवाह संस्कार के समय वेद के पंडितों ने वेद मंत्रोच्चार करते हुए ही सारा संस्कार संपन्न कराया था। अत: दोनों के लिए ये मंत्र अवश्य आया हेागा---
ओं गृभ्णामिते सौभगत्वाय हस्तं मया यत्या जर दृष्टिर्यथास:
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्महयंत्वादुर्गाई पत्याय देवा:।। (ऋ 10/85/36)
इसका अभिप्राय है कि हे वरानने! ऐश्वर्य तथा सुसंतान आदि सौभाग्य की वृद्घि के लिए मैं तेरे हाथ को ग्रहण करती/करती हूं, तू मेरे साथ वृद्घावस्थापर्यन्त सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर।
तुलसीदास जी ने यहां वेद विधि का उल्लेख कर स्पष्ट कर दिया है कि वैदिक व्यवस्था के अंर्तगत पाणि (हाथ) ग्रहण की जो विधि है, उसको यहां भली भांति पूर्ण किया गया। पाणिग्रहण के समय पति पत्नी एक दूसरे को अपना हृदय सौंपते हैं अथवा एक दूसरे को अपने हृदय मंदिर में प्रेम के देवता के रूप में स्थान देते हैं, एक ऐसा देवता जो सृजन का प्रतीक बनेगा और सुसंतान को देकर वंश की वृद्घि में सहायक बनेगा।
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विवाह से बनते हैं हम श्री और श्रीमती
विवाह के समय एक दूसरे को हृदय सौंपने की जो परंपरा पति-पत्नी के लिए हमारे यहां है वही उन्हें विवाह के बाद से श्री और श्रीमति बनाती है। श्री उस लक्ष्मी को कहते हैं जो लोकोपकार के लिए काम आती है। लेकिन यहां श्री के कुछ और अर्थ भी हैं। यथा श्री आश्रय के लिए भी कहा जाता है। आज एक दूसरे को हृदय मंदिर में आश्रय देने से ही ये दोनेां वर-वधू श्री और श्रीमति बनते हैं, अब से आगे इनके हृदय में उभर रहे प्रेम के कारण इनके हाथ इतने फैलते चले जाएं कि समस्त वसुधा ही उसमें समा जाए, तभी बनेगा-वसुधैव कुटुम्बकम्। हाथ दान के लिए अर्थात लोकोपकार के लिए भी फैलते हैं और प्रेम के विस्तार के लिए भी फेेलते हैं। दोनों अर्थों से विश्व का कल्याण ही होता है। प्रेम के विस्तार से कृण्वंतो विश्वमाय्र्यम् के आदर्श का विस्तार होता है, इस प्रकार श्री और श्रीमती शब्दों के गूढ़ अर्थ हैं। इन दोनों में भारतीय संस्कृति का निचोड़ (वसुधैव कुटुम्बकम् और कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्) निहित है।
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क्या ताडऩा से यह आदर्श स्थापित हो सकता है?
रामचंद्र जी का व्याख्यान
जनक दुलारी सीताजी और उनकी अन्य बहनों के विवाह संस्कार के उपरांत रामचंद्र जी उन्हें आश्वस्त करते हुए कहते हैं--
ते तुम सबैप्रेम की मूरति सूरति की बलिहारी।
सिद्घि आदि सब राजकुमारी मोहि प्राणहुं ते प्यारी।।
तुम सब प्रेम की मूरति हो। तुम्हारी सूरत पर बलिहारी।
सिद्घि और तुम सब राजकुमारी मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो।
वह आगे कहते हैं-हे प्यारी! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा है सो सब मैं आज पूरी करूंगा। हे लाडली! लोक की लाज बचाकर मैं तुमसे अलग नही रहूंगा।
हे सांवरी! हम सब प्रकार से तुम्हारे हैं और तुम हमारी हो। हे कुमारी! हमारा वचन सत्य मानो।
तुलसी के राम के इन शब्दों में कहीं ताडऩा नही है। हां, तारना अवश्य झलकती है।
सीताजी की माता ने कहा-
विवाह के उपरांत जब दशरथ नंदन अपने परिजनों और प्रियजनों के साथ अयोध्या लौटने लगे तो सीता जी की माता ने कहा था-
'परिवार पुरजन मोहि राजहिं प्रानप्रिय सिय जानिबी'
अर्थात-यह सीता कुटुम्बियों को, नगर वासियों को, मुझको और राजा को प्राणों के समान प्यारी है, ऐसा जानना। इसके शील और स्नेह को समझकर इसे अपनी दासी करके रखना।
यहां भी दासी का अर्थ भक्त और भगवान के मध्य तारणहारी प्रीति से ही निकालना अपेक्षित है। क्योंकि जिस प्रेमपूर्ण परिवेश में सारा संस्कार पूर्ण हुआ उसमें कोई माता दासी भाव को इस अर्थ में नही कह सकती कि इसे (मेरी बेटी को) जैसे चाहो वैसे मारना पीटना या लताडऩा।
दशरथ ने क्या कहा-
श्रीराम जब जानकी के साथ अपने घर पहुंच जाते हैं तो सायंकाल को दशरथ ने रानियों से कहा-
'बधू लरिकनी पर घर आई
राखेऊ नयन पलक की नाईं।।
अर्थात ये बहुएं अभी लड़कियां हैं, पराये घर आयी हैं, इनको नेत्र और पलकों की भांति रखना।
यहां दशरथ बड़ी व्यावहारिक बात कह रहे हैं। सामान्यत: सास अपनी बहू को लड़की ना समझकर प्रौढ़ महिला मान लेती हैं और इसी कारण बहू के प्रति उनका दृष्टिकोण कई बार प्रारंभ से तारना का न होकर ताडऩा का हो जाता है। राजा दशरथ इसीलिए रानियों को समझा रहे हैं, कि बहुओं को अपनी लड़की मानना और उनके प्रति अपना व्यवहार कृपापूर्ण अर्थात तारने वाला ही रखना। इतना कृपा पूर्ण कि आंखों में बसा लेना।
सुमित्रा ने क्या कहा
जब राम वन को जाने लगे तो माता सुमित्रा ने अपने पुत्र लक्ष्मण से कहा-
तात तुम्हारी मातु वैदेही,
पिता रामु सब भांति सनेही।
अर्थात हे पुत्र! जानकी जी तुम्हारी माता हैं और सब भांति से स्नेह करने वाले राम तुम्हारे पिता हैं।
तनिक हम विचार करें कि एक नारी दूसरी नारी को (भाभी होते हुए) अपने पुत्र से मातृवत सम्मान दिलाने की बात कह रही है। सम्मान भी राम से पहले, इसका अर्थ स्पष्ट है कि नारी के प्रति तुलसी के हृदय में कितना सम्मान था। माता सुमित्रा यहीं अपने पुत्र को शिक्षा देते हुए कहती है कि गुरू, माता, पिता, भाई, देवता और स्वामी इन सबकी प्राणों के समान सेवा करनी चाहिए।
भारतीय संस्कृति तो मानती ही ये है कि मातृदेवो भव:-अर्थात माता देवी होती हैं। यत्र नार्यंस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता....। ''इस आदर्श को सामने रखकर जब नारी के प्रति सम्मान व्यक्त किया जा रहा हो तो उसको सदा दण्डित करते रहने की बात सोचना कितना अतार्किक और अक्षम्य है।
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राम का विलाप-
सियाहरण के पश्चात तुलसीदास ने अपने प्रभु की जो दशा दिखाई है वह भी विचारणीय है, क्योंकि उस दशा को देखकर भी लगता है कि तुलसी नारी के प्रति कितने सहज हैं। राम कहते हैं-
हे खग, मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम देखी सीता मृगनैनी।।
हे मृगो! हे भौंरो की पांति तुमने कहीं मृगनयनी सीता देखी है?
यदि नारी केवल पांव की जूती होती, और तुलसी उसे केवल ताडऩ की पात्र मानते तो अपने प्रभु राम के मुखारबिंदु से ऐसे शब्द कदापि नही कहलाते। उन्होंने राम से ये शब्द कहलाकर नारी जाति के प्रति पुरूष समाज का असीम स्नेह और दायित्व बोध दर्शाया है। उन्होंने राम से यह नही कहलवाया कि सीता तो पांव की जूती थी खो गयी तो क्या हो गया, दूसरी पहन लेंगे?
हनुमानजी का उदाहरण
सुंदरकाण्ड में हनुमान जी सीता को प्रभु राम के विषय में जो बताते हैं कि वह भी ध्यातव्य है। उन्होंने अशोक वाटिका में बैठी सीता को बताया था-श्रीराम जी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मुझे सब वस्तुएं विपरीत हो गयीं हैं। नये पत्ते अग्नि के समान, रात्रिकाल के समान और चंद्रमा सूर्य के समान हैं और कमलवन भालों के समान हो गया है। बादल मानो गरम तेल बरसाते हैं। जो हितैषी थे वही पीड़ा देने वाले हो गये हैं। वायु सांप की फुंकार के समान हो गयी है। कहने से दु:ख कम नही होता है, पर किससे कहूं? यह दुख कोई नही जान सकता। मेरे और तुम्हारे प्रेम का तत्व केवल एक मेरा मन ही जानता है।
हनुमान जी का राम जी की ओर से माता सीता से यह उपरोक्त कथन केवल कथन नही है। इसमें राम की एक नारी के प्रति प्रेम पीड़ा छिपी है। उस नारी के प्रति जिसे वह अपने हृदय में स्थान देकर श्रीमान बने थे, आज उनकी हृदय मारे पीड़ा के कराह रहा है। क्योंकि जिसे हृदय में स्थान दिया था वही आज उनके पास नही थी। फेरों की रस्म उनके लिए केवल रस्म नही थी, अपितु एक मर्यादा थी और मर्यादा की रक्षार्थ वह अत्यंत व्याकुल थे। उनके लिए विवाह एक संविदा नही था अपितु एक पवित्र संस्कार था, जिसे वह जन्म जन्म का साथ मानते थे। भारतीय संस्कृति इसी संस्कार से निर्मित हुई है। इसलिए इस संस्कार से विपरीत अर्थ निकालना अनुचित होगा। इन सबसे यही सिद्घ होता है कि तुलसीदास का प्रतिपाद्य विषय नारी के नारीत्व की रक्षा करना है, ना कि उसे अपमानित करना। किसी शब्द के प्रक्षेप ने उनकी भावनात्मक मनोदशा का सत्यानाश कर दिया है। जिसे ठीक किया जाना उचित होगा।
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किस प्रसंग में कहा है ताडऩ शब्द?
जब रामचंद्र जी लंका पर चढ़ाई करने जाते हैं तो कहा जाता है कि समुद्र उन्हें रास्ता नही दे रहा था, (वास्तव में समुद्र का अर्थ यहां किसी ठेकेदार अर्थात निविदाकार से लेना चाहिए, जिसके क्षेत्राधिकार में संबंधित समुद्री क्षेत्र आता होगा। उसके छोटे छोटे कर्मचारी राम को निकलने नही दे रहे होंगे, लेकिन जब राम ने लक्ष्मण से बाण संभालने की बात कही तो उन लोगों में हड़कंप मच गया और तब उनका उच्चाधिकारी अर्थात निविदाकार वहां पहुंचा होगा) तो तब उस निविदाकार ने प्रभु राम को मनाने का अनुरोध किया। तब उस निविदाकार रूपी समुद्र ने राम से याचना करते हुए कहा कि आप मेरे सब अपराध क्षमा करें।
यहां समुद्र स्वयं को जड़ बता रहा है और कह रहा है कि इस समय आप अपने कोप को शांत करें। मेरे लोगों से जो अपराध हो गया है उसे क्षमा करें। तब वह कहता है-
ढोल, गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताडऩा के अधिकारी।।
अर्थात हे राम! ढोल अपनी कसैली आवाज से लोगों को परेशान करता है लेकिन उस पर कोप इसलिए नही किया जाता क्योंकि वह एक जड़ वस्तु है, इसलिए मुझपर भी कोप मत करो। जड़ वस्तु पर कोप करना नीति विरूद्घ है, इसलिए समुद्र जैसी जड़ वस्तु पर कोप करते हुए इसे एक ही बाण से सुखाने की बात मत करो, क्योंकि इससे अनेकों जीवों का विनाश हो जाएगा। इससे पहली चौपाई में समुद्र जड़ वस्तुओं पर क्रोध न करने की बात कह रहा है, और अगली चौपाई में जड़ वस्तु को वह प्रचलित अर्थ के अनुसार दंडित करने की बात कहने लगे तो यह बात जंचती नहीं।
मेरे लोगों से मूर्खता वश, गंवारूपन से अपराध हो गया है, जिस कारण उन्होंने आपको निकलने का मार्ग नही दिया। उन्हें आपकी शक्ति का अनुमान नही था, इसलिए उन्होंने अपने गंवार होने का परिचय दिया है। उनसे अनजाने में गलती हुई है इसलिए उन्हें क्षमा करें। अत: उन्हें मूर्ख, शूद्र और नारी के समान अपनी कृपा का पात्र बनाओ अर्थात उनके अपराध पर अधिक ध्यान उसी प्रकार मत दो जिस प्रकार शूद्र, पशु और नारी की किसी गलती पर नही दिया जाता है।
नारी अबला होने के कारण दंड की अधिकारिणी नही है। क्योंकि पौरूष बराबर के बलशाली व्यक्ति से लडऩे में ही दिखाया जाता है। हमारे यहां धनुर्धारी धनुर्धारी से और तलवार वाला तलवार से ही लड़ता था। महाभारत में भी ऐसा ही हुआ था। यह युद्घ का एक नियम था। नारी का सहज स्वभाव है, इसलिए वह युद्घ से दूर रहती है। अत: उसे दण्ड का पात्र नही माना गया है।
यदि हम इस चौपाई के प्रचलित अर्थ पर ध्यान दें तो पता चलता है कि ढोल, गंवार, शूद्र पशु और नारी तो दण्ड के ही पात्र हैं, इसलिए समुद्र अपने अपराध की क्षमा न मांग कर बल्कि स्वयं को और दण्डित करने के लिए कह रहा है। यह अर्थ प्रसंग के विरूद्घ है, तर्क के विरूद्घ है और भारतीय न्याय व्यवस्था के भी विरूद्घ है, साथ ही प्राकृतिक न्याय के भी विरूद्घ है। प्रसंग क्षमा याचना का है इसलिए क्रोध को शांत कराना याचक का ध्येय है ना कि क्रोधाग्नि को और प्रज्ज्वलित करना। इसलिए याचना को हम एक याचना ही रहने दें, ना कि उसे राम के लिए एक चुनौती बनायें।
स्वयं राम ने भी इस याचना को स्वीकार किया। यदि यहां समुद्र नारी को ताडऩा की अधिकारी कहता तो राम जैसा नीति मर्मज्ञ मर्यादा पुरूषोत्तम उसका उसी समय नीति संगत विरोध करता। इसलिए यही उचित है कि समुद्र ने ताडऩा की बात न कहकर तारना की बात कही। तुलसीदास जी का भाव भी यही है, लेकिन हमने ही तारना के स्थान पर ताडऩा शब्द प्रयुक्त कर लिया। जिसमें कुछ स्वार्थी लोगों की और संस्कृति नाशकों की सोच भी हो सकती है, या प्रमाद भी हो सकता है।
परंपरागत लोक न्याय क्या कहता है?
जब भारत की संस्कृति की वास्तविकता को समझने का कहीं प्रश्न आ उपस्थित हो तो हमें कथित बुद्घिजीवियों की अपनी संस्कृति संबंधी व्याख्याओं और धारणाओं की ओर ध्यान नही देना चाहिए। क्योंकि इनकी बातें उन पश्चिमी विद्वानों की थाली का उच्छिष्टï भोजन होता है जिन्होंने भारतीयता को आंशिक रूप से भी नही समझा और इसके विषय में उल्टा सीधा लिख दिया। उन्होंने भारत के वेदों को ग्वालों के गीत माना और हमारे विद्वानों ने उसका प्रचार किया। इसलिए भारत के अतीत को इन्होंने अंधकारमय माना। अत: ऐसी परिस्थितियों में हमें भारत की लोक मान्यताओं का परीक्षण, समीक्षण और निरीक्षण करना चाहिए। नारी के विषय में अब भी गांव देहात की स्थिति क्या है? इसका उत्तर यही है कि भारत के गांव देहात में नारी को आज भी अबला माना जाता है, और दो पक्षों की लड़ाई झगड़े में महिलाओं पर कोई पक्ष आज भी हाथ नही चलाता। यदि झगड़े में पिटते किसी पक्ष की ओर से महिलाएं आगे आ जाएं या पिटते हुए व्यक्ति के ऊपर महिला उसे बचाने के लिए लेट जाए तो दूसरा पक्ष लाठी चलानी बंद कर देता है। हमारे यहां युद्घ का यह एक नियम है, जो लाखों करोड़ों वर्षों से चला आ रहा है। लोक का यह न्याय नियम हमें बताता है कि महिला तारन की अधिकारी है। उस पर करूणा करनी चाहिए। यदि कोई मूर्ख किसी को गाली दे दे तो लोग कहते हैं कि इसके मुंह मत लगो यह तो मूर्ख है अर्थात मूर्ख होने के कारण इसे छोड़ दो, इस पर उपकार करके इसे प्राणदान दे दो। इसी प्रकार शूद्र-सेवक को अज्ञानी मानकर तथा पशु को पशु मानकर छोड़ा जाता है। भारतीय संस्कृति की यह मूल धारणा है, यद्यपि अपवाद स्वरूप इन पर कहीं कहीं अन्याय भी हुआ है। लेकिन भारत की मूल परंपरा ने उस अन्याय को अपनी स्वीकृति प्रदान नही की और ऐसे अन्यायी को सदा अन्यायी ही माना गया। ताडऩा उसकी होती है जो जानकर भी नही मानता पर गंवार शूद्र और पशु कुछ जानते नही हैं इसलिए उन्हें क्या दण्ड देना? यही प्राकृतिक न्याय है। हम अपनी संस्कृति के प्रति छायी हुई गंद को छांटने का प्रयास करें। तभी हम भारत को पुन: विश्वगुरू बना पाएंगे। तुलसी के सही मंतव्य और विचार को समझें और अपनी संस्कृति की पावनता को प्रखर करें। आज हमारा यही धर्मघोष और जयघोष होना चाहिए, संस्कृति की रक्षा प्रत्येक व्यक्ति का महत्वपूर्ण दायित्व है।

Monday, September 26, 2016

शहीद भगत सिंह जन्म दिन 27 सितम्बर 1907 पर विशेष

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है  ,
बड़ी  मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा .
भगतसिंह (1931)

मैं नास्तिक क्यों हूँ?


यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगतसिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुँचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा, “प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगतसिंह ने यह लेख लिखा।

एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्त – शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँ – मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी। कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?
मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूँ कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है? किसी वास्तव में महान व्यक्ति की महानता को मैं मान्यता न दूँ – यह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्य नहीं हूँ या मेरे अन्दर वे गुण नहीं हैं, जो इसके लिये आवश्यक हैं। यहाँ तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बन्द कर दे? दो ही रास्ते सम्भव हैं। या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनो ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूँ। यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धान्त को ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वन्द्वी हूँ, न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिये आइए तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षडयन्त्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूँ।
मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था। पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी0 ए0 वी0 स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घण्टों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहाँ तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं। उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतन्त्रता के ध्येय के लिये अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किन्तु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आन्दोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं – यहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लम्बे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी-भी सिक्ख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास न हो सका था। किन्तु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ जिस पहले नेता से मेरा सम्पर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठ पूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘'जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो।'’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता, जिनके मैं सम्पर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचीन्द्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षडयन्त्र केस के सिलसिले में आजीवन कारवास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘बन्दी जीवन’ ईश्वर की महिमा का ज़ोर-शोर से गान है। उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदान्त के कारण बरसाये हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवोल्यूशनरी’ (क्रान्तिकारी) पर्चा बाँटा गया था, वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गयी है। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रान्तिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अन्तिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सब मे सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘'दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है। वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परन्तु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।
इस समय तक मैं केवल एक रोमान्टिक आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे। अब अपने कन्धों पर ज़िम्मेदारी उठाने का समय आया था। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था। ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूँज रही थी – विरोधियों द्वारा रखे गये तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिये अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता माक्र्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।
मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ़्तार हुआ। रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफ़सरों ने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था, जब वहाँ काकोरी दल का मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्त किये थे, कि 1927 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिये भीड़ पर फेंका गया, कि यदि मैं क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला एक वक्तव्य दे दूँ, तो मुझे गिरफ़्तार नहीं किया जायेगा और इसके विपरीत मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किये बेगैर रिहा कर दिया जायेगा और इनाम दिया जायेगा। मैं इस प्रस्ताव पर हँसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भाँति विचार रखने वाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सी0 आई0 डी0 के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो मुझ पर काकोरी केस से सम्बन्धित विद्रोह छेड़ने के षडयन्त्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिये मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे और कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व फाँसी पर लटकवाने के लिये उचित प्रमाण हैं। उसी दिन से कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे नियम से दोनो समय ईश्वर की स्तुति करने के लिये फुसलाना शुरू किया। पर अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्वयं के लिये यह बात तय करना चाहता था कि क्या शान्ति और आनन्द के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दम्भ भरता हूँ या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धान्तों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिये भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहाँ तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है। तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पाँवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं वरन् कोई अन्य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। निर्णय का पूरा-पूरा पता है। एक सप्ताह के अन्दर ही यह घोषित हो जायेगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूँ। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सान्त्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जायेगी। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई ज़िन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी – यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएँ मिल जायेंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा। वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिये उत्प्रेरित होंगे। इस लिये नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है यहाँ या अगले जन्म में या मृत्योपरान्त स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शान्ति स्थापित करने के लिये इस मार्ग को अपनाना होगा। क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिये ख़तरनाक किन्तु उनकी महान आत्मा के लिये एक मात्र कल्पनीय रास्ता है। क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जायेगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण बोलने का साहस करेगा? या तो वह मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय मांस के एक टुकड़े की तरह मृत है। उसकी आँखों पर अन्य स्वार्थों के प्रेतों की छाया पड़ने से वे कमज़ोर हो गयी हैं। स्वयं पर भरोसा रखने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। यह दुखपूर्ण और कष्टप्रद है, पर चारा ही क्या है?
आलोचना और स्वतन्त्र विचार एक क्रान्तिकारी के दोनो अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था। अतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास को सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को ही चुनौती दे, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जायेगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खण्डन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखा कर दबाया नहीं जा सकता तो उसकी यह कह कर निन्दा की जायेगी कि वह वृथाभिमानी है। यह मेरा अहंकार नहीं था, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूँ कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यन्त शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है। किन्तु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अन्तः प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूँ। इस ध्येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूँ। प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है। सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है। कोई भी मनुष्य, जिसमें तनिक भी विवेक शक्ति है, वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहाँ सीधा प्रमाण नहीं है, वहाँ दर्शन शास्त्र का महत्व है। जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्व के रहस्य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य को, इसके क्यों और कहाँ से को समझने का प्रयास किया तो सीधे परिणामों के कठिन अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने ढ़ंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में हमको इतना अन्तर मिलता है, जो कभी-कभी वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्येक गोलार्ध के अपने विभिन्न मतों में आपस में अन्तर है। पूर्व के धर्मों में, इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में ज़रा भी अनुरूपता नहीं है। भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग है, जिसमें स्वयं आर्यसमाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाये जाते हैं। पुराने समय का एक स्वतन्त्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। हर व्यक्ति अपने को सही मानता है। दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं।
सिर्फ विश्वास और अन्ध विश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेगा। तब नये दर्शन की स्थापना के लिये उनको पूरा धराशायी करकेे जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निमाण करना। मैं प्राचीन विश्वासांे के ठोसपन पर प्रश्न करने के सम्बन्ध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है। हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।
यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगांें की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिये। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भत्र्सना करते हैं – नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट। एक चंगेज खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खाँ से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है? ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहाँ तक उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंख़्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि, यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जायेगी? इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनन्द लूटने के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?
तुम मुसलमानो और ईसाइयो! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से लेकर उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा, और अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाआंे के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहे – सब कुछ ठीक है! क्यों और कहाँ से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है, तो मैं आगे चलता हूँ।
और तुम हिन्दुओ, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार दण्ड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं – प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निन्दा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिये अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है। मैं पूछता हूँ कि दण्ड प्रक्रिया की कहाँ तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का क्या भाग्य होगा? चूँकि वह गरीब है, इसलिये पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोेगेगा? ईष्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दण्ड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दम्भी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाये रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों – वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी सम्पत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाये इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेल, फाँसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।
मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!
क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।
तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।
मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिये उत्साहित करने, सभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा सम्पन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिये ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई। अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा न बन जाये। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती ह,ै तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यन्त क्लेष में हो, तब उसे इस विचार से सान्त्वना मिल सकती हे कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिये उपयोगी था। पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिये ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।
हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘'अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।'’ मैंने कहा, ‘'नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूँ। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।'’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।

Date Written: 1931
Author: Bhagat Singh
Title: Why I Am An Atheist (Main nastik kyon hoon)
First Published: Baba Randhir Singh, a freedom fighter, was in Lahore Central Jail in 1930-31. He was a God-fearing religious man. It pained him to learn that Bhagat Singh was a non-believer. He somehow managed to see Bhagat Singh in the condemned cell and tried to convince him about the existence of God, but failed. Baba lost his temper and said tauntingly: “You are giddy with fame and have developed and ago which is standing like a black curtain between you and the God.” It was in reply to that remark that Bhagat Singh wrote this article. First appeared in The People, Lahore on September 27, 1931.

Monday, August 22, 2016

👤मन की समस्या क्या है ?👤
पहली बात, वह यह, हमारे भीतर जो यह आकांक्षा और दौड़ होती है कि हम भर लें अपने को, फुलफिलमेंट की, पूर्णता की, पा लेने की, कुछ हो जाने की, यह दौड़ इसलिए पैदा होती है कि हमें अहसास होता है कि भीतर हम खाली हैं, भीतर अभाव है, भीतर एंप्टीनेस है, भीतर कुछ भी नहीं है।
भीतर मालूम होता है ना कुछ, भीतर मालूम होता है शून्य, उस शून्य को भरने के लिए हम दौड़ते हैं, दौड़ते हैं, दौड़ते हैं।
लेकिन क्या आपको पता है कि जो शून्य भीतर है, उसे बाहर की कितनी ही सामग्री से भरना असंभव है! क्योंकि शून्य है भीतर और हमारे साम्राज्य होंगे बाहर, साम्राज्य बढ़ते चले जाएंगे, शून्य अपनी जगह बना रहेगा। इसीलिए तो सिकंदर खाली हाथ मरता है। नहीं तो सिकंदर के हाथ में तो बड़ा साम्राज्य था, बड़ी धन—दौलत थी। शायद ही किसी आदमी कै पास इतना बड़ा साम्राज्य रहा हो, इतनी धन—दौलत रही हो। खाली हाथ क्यों मरता है यह आदमी? यह खाली हाथ किस बात की सूचना है? यह सूचना है कि भीतर जो खालीपन है वह नहीं भरा जा सका। बाहर सब इकट्ठा हो गया; लेकिन नहीं, भीतर कुछ भी नहीं पहुंच सका।
कौन सी चीज भीतर पहुंच सकती है?
बाहर की कोई भी चीज भीतर नहीं पहुंच सकती। बाहर के मित्र बाहर हैं, बाहर की संपदा बाहर है, बाहर का धन, बाहर की यश प्रतिष्ठा, सब बाहर है। और भीतर हूं मैं। मेरे अतिरिक्त मेरे भीतर कोई भी नहीं। मेरा होना ही मेरा भीतर है। मेरा बीइंग ही मेरा, मेरा आंतरिक शून्य है, मेरी आंतरिक रिक्तता है। भीतर मैं हूं खाली, बाहर मैं दौड़ता हूं कि भरूं, भरूं। बहुत इकट्ठा कर लेते हैं दौड़ कर। लेकिन जब आंख उठा कर देखते हैं तो पाते हैं भीतर तो सब खाली है, दौड़ तो व्यर्थ गई।
इसलिए नहीं है उपाय कि भीतर है शून्य, बाहर है सामग्री। फिर हम क्या करें? इस भीतर के शून्य को कैसे भरें? कैसे हमें अहसास हो जाए कि अब मेरी कोई मांग नहीं?
उसी दिन आदमी जीवन में कहीं पहुंचता है जिस दिन उसकी कोई मांग नहीं रह जाती, जिस दिन उसका भिखारी मर जाता है। धर्म प्रत्येक मनुष्य को ऐसी जगह ले जाना चाहता है जहां वह सम्राट हो जाए। दिखता तो ऐसा है कि संसार में सम्राट होते हैं, लेकिन जो जानते हैं वे कहेंगे, संसार में कभी कोई सम्राट नहीं हुआ, सभी भिखारी हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ भिखारी छोटे हैं, कुछ भिखारी बड़े हैं; यह दूसरी बात है कि किन्हीं का भिक्षापात्र छोटा है, किन्हीं का बड़ा है; यह दूसरी बात है कि कुछ रोटी मांगते हैं, कोई राज्य मांगता है। लेकिन मांगने के संबंध में कोई भिन्नता नहीं, भिखमंगेपन में कोई भेद नहीं।
धर्म तो समझता है कि केवल वे ही लोग सम्राट हो सकते हैं जो भीतर एक आंतरिक संपूर्णता को उपलब्ध होते हैं। उनकी सारी मांग मिट जाती है। उनकी दौड़, उनके भिक्षा का पात्र टूट जाता है।
#-जीवन रहस्य
🌹ओशो 👏👏👏👏👏

Tuesday, August 16, 2016

बुद्ध के पास मौलुंकपुत्त नाम का एक दार्शनिक आया। उसने कहा : ईश्वर है?
बुद्ध ने कहा : सच में ही तू जानना चाहता है या यूं ही एक बौद्धिक खुजलाहट?
मौलुंकपुत्त को चोट लगी। उसने कहा : सच में ही जानना चाहता हूं। यह भी आपने क्या बात कही! हजारों मील से यात्रा करके कोई बौद्धिक खुजलाहट के लिए आता है?
तो फिर बुद्ध ने कहा : तो फिर दांव पर लगाने की तैयारी है कुछ।
मौलुंकपुत्त को और चोट लगी, क्षत्रिय था। उसने कहा : सब लगाऊंगा दांव पर। हालांकि यह सोचकर नहीं आया था। पूछा उसने बहुतों से था कि ईश्वर है और बड़े वाद—विवाद में पड़ गया था। मगर यह आदमी कुछ अजीब है, यह ईश्वर की तो बात ही नहीं कर रहा है, ये दूसरी ही बातें छेड़ दीं कि दांव पर लगाने की कुछ हिम्मत है। मौलुंकपुत्त ने कहा : सब लगाऊंगा दांव पर, जैसे आप क्षत्रिय पुत्र हैं, मैं भी क्षत्रिय पुत्र हूं, मुझे चुनौती न दें।
बुद्ध ने कहा : चुनौती देना ही मेरा काम है। तो फिर तू इतना कर—दो साल चुप मेरे पास बैठ। दो साल बोलना ही मत—कोई प्रश्न इत्यादि नहीं, कोई जिज्ञासा वगैरह नहीं। दो साल जब पूरे हो जाएं तेरी चुप्पी के तो मैं खुद ही तुझसे पूछूंगा कि मौलुंकपुत्त, पूछ ले जो पूछना है। फिर पूछना, फिर मैं तुझे जवाब दूंगा। यह शर्त पूरी करने को तैयार है?
मौलुंकपुत्त थोड़ा तो डरा क्योंकि क्षत्रिय जान दे दे यह तो आसान मगर दो साल चुप बैठा रहे…..! कई बार जान देना बड़ा आसान होता है, छोटी—छोटी चीजें असली कठिनाई की हो जाती हैं। जान देना हो तो क्षण में मामला निपट जाता है, कि कूद गए पानी में पहाड़ी से, कि चले गए समुद्र में एक दफा हिम्मत करके, कि पी गए जहर की पुड़िया—यह क्षण में हो जाता है। इतने तेज जहर हैं कि तीन सैकंड में आदमी मर जाए, बस जीभ पर रखा कि गए, एक क्षण की हिम्मत चाहिए। लेकिन दो साल चुप बैठे रहना बिना जिज्ञासा, बिना प्रश्न, बोलना ही नहीं, शब्द का उपयोग ही नहीं करना—यह ज़रा लंबी बात थी मगर फंस गया था। कह चुका था कि सब लगा दूंगा तो अब मुकर नहीं सकता था, भाग नहीं सकता था। स्वीकार कर लिया, दो साल बुद्ध के पास चुप बैठा रहा।
जैसे ही राजी हुआ वैसे ही दूसरे वृक्ष के नीचे बैठा हुआ एक भिक्षु जोर से हंसने लगा। मौलुंकपुत्त ने पूछा : आप क्यों हंसते हैं?
उसने कहा : मैं इसलिए हंसता हूं कि तू भी फंसा, ऐसे ही मैं फंसा था। मैं भी ऐसा ही प्रश्न पूछने आया था कि ईश्वर है और इन सज्जन ने कहा कि दो साल चुप। दो साल चुप रहा, फिर पूछने को कुछ न बचा। तो तुझे पूछना हो तो अभी पूछ ले। देख, तुझे चेतावनी देता हूं, पूछना हो अभी पूछ ले, दो साल बाद नहीं पूछ सकेगा।
बुद्ध ने कहा : मैं अपने वायदे पर तय रहूंगा, पूछेगा तो जवाब दूंगा। अपनी तरफ से भी पूछ लूंगा तुझसे कि बोल पूछना है? तू ही न पूछे, तू ही मुकर जाए अपने प्रश्न से तो मैं उत्तर किसको दूंगा?
दो साल बीते और बुद्ध नहीं भूले। दो साल बीतने पर बुद्ध ने पूछा कि मौलुंकपुत्त अब खड़ा हो जा, पूछ ले।
मौलुंकपुत्त हंसने लगा। उसने कहा : उस भिक्षु ने ठीक ही कहा था। दो साल चुप रहते—रहते चुप्पी में ऐसी गहराई आई; चुप रहते—रहते ऐसा बोध जमा, चुप रहते—रहते ऐसा ध्यान उमगा; चुप रहते—रहते विचार धीरे—धीरे खो गए, खो गए, दूर—दूर की आवाज मालूम होने लगे; फिर सुनाई ही नहीं पड़ते थे, फिर वर्तमान में डुबकी लग गई और जो जाना…..बस आपके चरण धन्यवाद में छूना चाहता हूं। उत्तर मिल गया है, प्रश्न पूछना नहीं है।
परम ज्ञानियों ने ऐसे उत्तर दिए हैं—प्रश्न नहीं पूछे गए उत्तर मिल गए हैं। प्रश्नों से उत्तर मिलते ही नहीं—शून्य से मिलता है उत्तर। और जो उत्तर मिलता है वही परमात्मा है। और तब तुम्हें चारों तरफ वही एक दिखाई पड़ता है। अभी कहीं नहीं दिखाई पड़ता फिर ऐसी जगह नहीं दिखाई पड़ती जहां न हो। अभी तुम पूछते हो परमात्मा कहां है; फिर पूछोगे परमात्मा कहां नहीं है |

Sunday, August 14, 2016

भारत का एकाधिकार ओशो
भारत के पूरे इतिहास में एक भी बड़ा वैज्ञानिक तुम न पाओगे। ऐसा नहीं कि यहां बुद्धिमान और कुशल लोग न हुए, कि प्रतिभाएं नहीं जन्मीं। गणित की आधारशिला भारत में रखी गई थी, किंतु अल्बर्ट आइंस्टीन यहां पैदा नहीं हुआ। चमत्कारिक रूप से यह पूरा देश किसी बाह्य खोज में उत्सुक ही नहीं था। ‘पर’ की पहचान नहीं, वरन स्वयं को जानना ही यहां एकमात्र लक्ष्य रहा।
कम से कम दस हजार सालों से लाखों-करोड़ों लोग सतत एक ही प्रयास में जुटे रहे, उसके पीछे सब कुछ बलिदान कर दिया विज्ञान, तकनीकी विकास, समृद्धि। उन्होंने दरिद्रता, रुग्णता, बीमारियां और मृत्यु को भी स्वीकार कर लिया, परंतु सत्य की खोज को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा। इससे एक खास किस्म का वातावरण निर्मित हुआ, कुछ विषेष तरह की तरंगों का सागर जो चारों ओर से तुम्हें घेरे है।
यदि कोई थोड़े से भी ध्यानी चित्त को लेकर यहां आता है, तो उसे उन तरंगों का संस्पर्श होगा। हां, अगर एक पर्यटक की भांति आते हो तो तुम चूक जाओगे। तुम मंदिरों, महलों, खंडहरों को, ताजमहल, खजुराहो, और हिमालय को तो देख लोगे, पर भारत को नहीं देख पाओगे। तुम असली भारत से बिना मिले ही भारत से गुजर जाओगे।
यद्यपि वह सब ओर व्याप्त था, पर तुम संवेदनशील न थे, ग्राहक न थे। तुम कुछ ऐसा देखकर लौटोगे जो वास्तविक भारत नहीं, सिर्फ उसका अस्थि-पंजर है, आत्मा नहीं। तुम्हारे पास उस अस्थि-पंजर के फोटोग्राफ्स होंगे, उनका अलबम बनाओगे और सोचोगे कि भारत घूम आए, भारत को जान लिया। यह स्वयं को धोखा दे रहे हो तुम।
एक आध्यात्मिक पहलू भी है। न तो तुम्हारे कैमरा उसके चित्र लेने में, और न ही तुम्हारे शिक्षा-संस्कार उसे पकड़ने में सक्षम हैं। जर्मनी, इटली, फ्रांस, इंग्लैंड अथवा किसी भी देश में जाकर तुम वहां के लोगों से मिल सकते हो। वहां के भूगोल से, इतिहास और अतीत से भलीभांति परिचित हो सकते हो।
लेकिन जहां तक भारत का प्रश्न है, ऐसा नहीं किया जा सकता। यदि अन्य देषों की श्रेणी में भारत को गिना, तो प्रारंभ से ही तुमने चूक कर दी, क्योंकि उन देशों में वैसा आध्यात्मिक आभामंडल नहीं है। उन्होंने एक भी गौतम बुद्ध, महावीर, नेमीनाथ और आदिनाथ को जन्म नहीं दिया।
एक भी कबीर, फरीद या दादू पैदा नहीं किया। उन्होंने बड़े वैज्ञानिकों, कवियों, कलाकारों, चित्रकारों और सभी प्रकार के प्रतिभा-संपन्न व्यक्तियों को तो पैदा किया, पर रहस्यदर्शी ऋषि भारत की मोनोपॉली है, एकाधिकार है, कम से कम अभी तक तो यह एकाधिकार रहा है।
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हमारा राष्ट्रीय धर्म ,हमारा राष्ट्रीय ध्वज .


हमारे देश में अनेक धर्म संस्कृतियाँ विद्यमान हैं ,और सबके अपने अपने पर्व त्यौहार हैं तो फिर क्या ये सरकारी कार्यक्रम है ? जिसे सभी सरकारी कर्मचारीगण मनाते हैं..और बाकी लोगो की मर्जी हम मनाएं अथवा ना मनाये..किसी को क्या लेना ..
आज यही सोच देश के कई हिस्सों में पनप रही है और स्वार्थ की खाद पानी पाकर
फल फूल भी रही है ..........
तो सभी देश वासी एक बार अपने राष्ट्रीय ध्वज को कुछ देर ध्यान से देंखे..क्या कहना चाहता है ये अपने प्रिय देशवासियों से ?अब कहेंगे इसमें क्या खास है बचपन से पढ़ाया गया है कि तिरंगे के तीन रंग हमें वीरता ,शांति और समृद्धि का संदेश देते हैं ..............हाँ ये सच है कि भारत का ध्वज बहुत विराट विचारों का मूर्त रूप है ..
लेकिन जरा रुकें क्या कभी आपने सोचा कि केसरिया रंग सबसे ऊपर क्यों है ?
ये सवाल इसलिए भी जरूरी है कि आज हमने रंगों को भी धर्मों के नाम पर आरक्षित कर लिया है | और हो सकता है कल कोई सिरफिरा सडक पर उतर कर ये मांग कर बैठे कि मुझे तिरंगे में सबसे ऊपर अपने धर्म का रंग चाहिए | क्योंकि ये भारत नहीं हिंदुस्तान है और यहाँ अब सब सम्भव है ................
केसरिया रंग ऊपर है तो समझ लें कि भारत के संविधान ने हमारे वीरों को हमारी सेना को हमारे रक्षकों को सबसे ऊपर माना है और उनका सम्मान करना प्रत्येक भारतीय का राष्ट्रीय धर्म है और इसके लिए किसी धर्म की आड़ नहीं मिल सकती .
आप चाहें कि कुरान अथवा गीता हाथ में लेकर हमारी सेना का रास्ता रोक लें तो
इसकी अनुमति किसी को भी नहीं है ....
यदि आप तिरंगे की पहली पट्टी को अपना राष्ट्रीय धर्म बना लें तो दूसरी पट्टी जो कि एकदम श्वेत है वो अपना उद्देश्य स्वयं प्राप्त कर लेगी ............
अर्थात हम सब अपने अपने धर्मो को शांतिपूर्वक निभा सकेंगे ..और जिस देश के नागरिक शांतिपूर्वक अपने धर्म का पालन करते हैं वहां समृद्धि स्वत: ही विद्ध्यमान
रहती है .लेकिन ध्यान रहे समृद्धि के लिए राष्ट्रीय ध्वज की बीच की पट्टी का सफेद रहना बहुत आवश्यक है जिसके लिए हमें हर पल सजग रहना होगा .क्योंकि सफेद रंग का रख रखाव बहुत कठिन होता है | एक हल्का सा धब्बा भी दूर से दिखाई देता है | सो सफेदी की चमक बनी रहे इसके लिए हर पल जाग्रत रहना है | हम सभी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपना रंग चमकाने के चक्कर में राष्ट्रिय ध्वज की सफेद पट्टी पर कोई छींटा न गिर जाए .क्योंकि पहला छींटा ही सफेद पट्टी को पहला दाग देगा ..और दाग हर जगह अच्छे नहीं होते ..........
तो आओ अपने तिरंगे के संदेश को आत्मसात करते हुए मनाएं अपना .
"स्वतंत्रता दिवस ,,
जय हिन्द जय भारत
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Sunday, July 31, 2016

महाशिवरात्रि - आस्था की नाव पर इच्छाओं के मेले ..

कितनी भीड़ जुटी है फिर भी शंकर आज अकेले हैं |
औघड़दानी की देहरी पर इच्छाओं  के मेले हैं ||
श्रृद्धा ,सेवा और परिश्रम ,सबकी अपनी बोली है |
फक्कड बाबा शंकर को भरनी दुनिया  की झोली है ||
 जब मन्दिर की देहरी तक कोई अनुरागी आता है |
वैरागी शंकर अनुरागी होकर हाथ बढ़ाता है ||
आओ बैठो कहकर भोले बाबा हाथ बढ़ाते हैं |
और हम प्रेम भरे हाथों पर कुछ पैसा रख आते हैं ||
मेरी बारी ,मेरी बारी कहकर शोर मचाते हैं ..
तेरी गंगा के जल से तुझपे अहसान चढ़ाते हैं ||
भिखमंगों की दुनिया में मेरे सरकार अकेले हैं ||
औघड़दानी की देहरी पर ,इच्छाओं के मेले हैं |
अपनी झूठन डाल डाल कर तुझको झूठा करते हैं |
चादर ओढ़े साधू की ईश्वर को लूटा करते हैं ||
वो सतयुग था जब गंगा माँ ब्रह्मलोक से आई थी .
भाव भरे दिल में जग से मिलने की इच्छा लाई थी ||
अब दुनिया को गंगा की इच्छा से कोई प्यार नहीं .
कैसी थी और कैसी हो गयी दुनियां को दरकार नहीं
शंकर अपनी जटा बांध लो गंगा मैया रोती है .
झूठे लोगों की झूठन धो -धोकर मैली होती हैं
अब त्रिवेणी की छाती पर अवशेषों के मेले हैं |
कितनी भीड़ जुटी है फिर भी शंकर आज अकेले हैं
श्री हरि 

Saturday, July 30, 2016

 मामूली दबाव... उससे उपजा तनाव, और इस तनाव में निहित ऊर्जा के चलते भीषण तबाही ही... आसमान सी ऊंची खड़ी होनेवाली दीवार की वजह होते हैं।
सबसे ज्यादा नुकसान तनाव के चलते लगे झटके के विरुध, लचक नहीं होने से होता है। लचक बेहद जरूरी है... हर झटके से बच निकलने के लिए।

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250 लाख साल पहले चीन और भारत की धरती अलग थी। दोनों ने साथ रहने का फैसला किया या संयोग बना कि दोनों साथ रहें, और दोनों एक दूसरे के करीब आ गई।

पर साथ रहने की अपनी कीमत होती है। धरती के ये दोनों टुकड़े, 1.5 से 2 इंच सालाना की दर से, एक दूसरे को दबा रहे हैं। दूसरे पर एकदम मामूली दबाव बना रहे हैं... बेहद मामूली।

इस ना दिखनेवाले बेहद मामूली दर से वे एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं। दबाव की दर, बेहद मामूली है, एक साल में बस दो इंच, पर ये सचमुच में बेहद मामूली है क्या?

नतीजा सामने तो है... अपूर्णीय क्षति,

एक दूसरे को दबाने की कोशिश के इस दाब ने ही, इन दोनों के बीच, हिमालय जैसी ऊंची दीवार खड़ी कर दी है।

हमारे सारे जाती रिश्ते,, व्यक्तिगत और सामाजिक, सारे संबंध हमारे, ऐसे ही होते हैं। हम सब, एक दूसरे को अनदेखे दबाव से दबाते रहते हैं। वो दाब बेहद मामूली ही लगता है। लगता है कि इससे क्या होगा।

पर... दबाव मामूली ही क्यों ना हो, असर डालता है। हर दाब, एक बड़े तनाव की रचना करता है। उससे फर्क पड़ता है। दबाव से पैदा हुआ तनाव, जब अनियंत्रित होता है... तो भूकंप आता है। वो केवल जमीन में नहीं, व्यक्तिगत जीवन में भी आता है। तबाही... रिश्तों और व्यक्तियों के बीच भी मचती है। ये टूटन, व्यक्तियों के बीच भी हिमालय सी अलघ्य (जिसे पार ना किया जा सके) दीवार खड़ी कर देती है।

तो एक दूसरे को ‘मामूली समझे जानेवाले' दाब से दबाने से पहले, उससे पैदा होने वाले बेहिसाब तनाव और उसके नतीजे से हुए भूकंप के बारे में जरूर सोचिए, उससे होनेवाली तबाही के बारे में जरूर विचार करिए। व्यक्ति और रिश्तों के बीच खड़ी हो जानेवाली हिमालय जैसी दीवार का ख्याल जरूर कीजिएगा।

आपका मामूली दबाव... भीषण तबाही, आसमान सी ऊंची एक दीवार की वजह होता है।

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संसार, ब्रह्मांड में नियमों की कोई विविधता नहीं है। दिमाग वाले इंसानी रिश्ते, और मृत पत्थरों के बीच भी काम करनेवाले कायदे, एक ही होते हैं। उनका प्रभाव और नतीजा सब एक जैसा ही होता है।

तो भूकंप जमीन पर आए... या जीवन में... वजह मामूली समझा जानेवाले दबाव ही होता है। जमीन के दबाव को नियंत्रित नहीं कर सकते, आप जमीन के भूकंप को रोक नहीं सकते। वहां तो भूकंप आयेगा ही आएगा। हां, उस भूकंप से बचने की कोशिश जरूर करते है।

लेकिन अपने साथ के व्यक्ति पर जो दाब हम डालते हैं, ये इंसानी दबाव तो उपजता ही हमारे भीतर से है। तो इससे आए भूकंप से बचने से बहुत पहले तो हम इस भूकंप के होने ही नहीं देने में समर्थ हैं। तो रोक लीजिए, ऐसे हर भूकप को। अपनों पर... अपना दाब कम कीजिए।

उन्हें आजाद कीजिए, स्वतंत्र रहने दीजिए... उनपर हावी मत होईए... मत दबाईए उन्हें अपनी ऊर्जा से, अपनी विशाल भव्यता से।

वर्ना रिश्तों के बीच हिमालय सी दीवार खड़ी हो जाएगी... और हिमालय यूं ही खड़ा नहीं होता, वो लगातार विनाशकारी भूकंप के साथ खड़ा होता है। ये भूकंप तबतक आते हैं, जबतक सबकुछ खत्म ना हो जाएगा।
दूसरा सूत्र है:
ज्ञानम् बंध:।
ज्ञान बंध है।
बड़ी हैरानी का सूत्र है। ज्ञान के बहुत अर्थ है। एक तो, जब तक तुम इस ज्ञान से भरे हो कि मैं हूं तब तक तुम अज्ञान में रहोगे; क्योंकि 'मैं' अज्ञान है। अहंकार अज्ञान है। जिस दिन तुम आत्मा से भरोगे, उस दिन 'हूं—पन' तो रहेगा, 'मैं—पन' नहीं रहेगा।’मैं हूं, इसमें से 'मै' तो कट जायेगा, सिर्फ 'हूं' रहेगा।
इसे थोड़ा प्रयोग करके देखो। कभी किसी वृक्ष के नीचे शांत बैठकर खोजो कि तुम्हारे भीतर 'मैं' कहां है? तुम कहीं भी न पाओगे।’हूं, तो तुम सब जगह पाओगे।’मैं' तुम कहीं भी न पाओगे। सब जगह तुम्हें अस्तित्व मिलेगा, लेकिन अस्तित्व के साथ अहंकार तुम्हें कहीं न मिलेगा। अहंकार तुम्हारी निर्मिति है। वह तुम्हारा बनाया हुआ है। वह झूठा है, वह असत्य है। उससे ज्यादा अप्रामाणिक और कुछ भी नहीं है। वह कामचलाऊ है। उसकी संसार में जरूरत है; लेकिन सत्य में उसका कहीं भी कोई स्थान नहीं है।
तो एक तो 'मैं हूं, — यह ज्ञान बंध का कारण है। मेरा बोध, 'हूं—पन' का बोध नहीं, 'हूं—पन' का बोध तो शुद्ध है, उसमें कोई सीमा नहीं है। जब तुम कहते हो 'हूं,, तो तुम्हारे 'हूं में और वृक्ष के 'हूं में कोई फर्क होगा? तुम्हारे 'हूं, में और मेरे 'हूं में कोई फर्क होगा? जब तुम सिर्फ 'हो', तो नदियां, पहाड़, वृक्ष, सभी एक हो गया। जैसे ही मैंने कहा 'मैं', वैसे ही मैं अलग हुआ। जैसे ही मैंने कहा 'मैं', वैसे ही तुम टूट गये, पर हो गये, अस्तित्व से मैं पृथक हो गया।
'हूं—पन' ब्रह्म है और 'मैं' मनुष्य की अज्ञान—दशा है। जब तुम जानते हो कि सिर्फ 'हूं, तब तुम्हारे भीतर केंद्र नहीं होता। तब सारा अस्तित्व एक हो जाता है। तब तुम उस लहर की तरह हो, जो सागर में खो गई। अभी तुम उस लहर की तरह हो जो जम कर बर्फ हो गई है; सागर से टूट गई है।
'ज्ञानं बंध:। पहला तो, ज्ञान बंध है— इस बात का ज्ञान कि मैं हूं। दूसरा, ज्ञान बंध है— वह सब ज्ञान जो तुम बाहर से इकट्ठा कर लिये हो, जो तुमने शास्त्रों से चुराया है, जो तुमने सदगुरुओं से उधार लिया है, जो तुम्हारी स्मृति है— वह सब बंधन है। उससे तुम्हें शक्ति न मिलेगी। इसलिए तुम पंडित से ज्यादा बंधा हुआ आदमी न पाअतौ।
मेरे पास सब तरह के लोग आते हैं— सब तरह के मरीज। उसमें पंडित से ज्यादा कैंसरग्रस्त कोई भी नहीं है। उसका इलाज नहीं है। वह लाइलाज है। उसकी तकलीफ यह है कि वह जानता है। इसलिए, न वह सुन सकता है, न समझ सकता है। तुम उससे कुछ बोलो, इसके पहले कि तुम बोलो, उसने उसका अर्थ कर लिया है; इसके पहले कि वह तुम्हें सुने, उसने व्याख्या निकाल ली है। शब्दों से भरा हुआ चित्त, जानने में असमर्थ हो जाता है। वह इतना ज्यादा जानता है, बिना कुछ जाने; क्योंकि सब जाना हुआ उधार है।
शास्त्र से अगर ज्ञान मिलता होता, तो सभी के पास शास्त्र है, ज्ञान सभी को मिल गया होता। ज्ञान तो तब मिलता है, जब कोई निःशब्द हो जाता है; जब वह सभी शास्त्रों को विसर्जित कर देता है; जब वह उस सब ज्ञान को, जो दूसरों से मिला है, वापिस लौटा देता है जगत को; जब वह उसे खोजता है, जो मेरा मूल अस्तित्व है, जो मुझे दूसरों से नहीं मिला।
इसे थोड़ा समझें। तुम्हारा शरीर तुम्हें तुम्हारे मां और पिता से मिला है। तुम्हारे शरीर में तुम्हारा कुछ भी नहीं है। आधा तुम्हारी मां का दान है, आधा तुम्हारे पिता का दान है। फिर तुम्हारा शरीर तुम्हें भोजन से मिला है—वह जो रोज तुम भोजन कर रहे हो; पांच तत्वों से मिला है—वायु है, अग्रि है, पांचों तत्व हैं, उनसे मिला है। इसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम्हारी चेतना, तुम्हें पांचों तत्वों में से किसी से भी नहीं मिली। तुम्हारी चेतना तुम्हें मां और पिता से भी नहीं मिली।
तुम जो—जो जानते हो वह तुमने स्कूल, विश्वविद्यालय से सीखा है, शास्त्रों से सुना है, गुरुओं से पाया है। वह तुम्हारे शरीर का हिस्सा है, तुम्हारी आत्मा का नहीं। तुम्हारी आत्मा तो वही है जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिली है। जब तक तुम उस शुद्ध तत्व को न खोज लोगे, जो निपट तुम्हारा है, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला है—न मां ने दिया, न पिता ने दिया, न समाज ने, न गुरु ने, न शास्त्र ने—वही तुम्हारा स्वभाव है।
ज्ञान बंध है—क्योंकि, वह तुम्हें इस स्वभाव तक न पहुंचने देगा। ज्ञान ने ही तुम्हें बांटा है। तुम कहते हो कि मैं हिंदू हूं। तुमने कभी सोचा है कि तुम हिंदू क्यों हो? तुम कहते हो कि मैं मुसलमान हूं। तुमने कभी विचारा कि तुम मुसलमान क्यों हो? हिंदू और मुसलमान में फर्क क्या है? क्या उनका खून निकालकर कोई डाक्टर परीक्षा करके बता सकता है कि यह हिंदू का खून है, यह मुसलमान का खून है? क्या उनकी हड्डियां काटकर कोई बता सकता है कि हड्डी मुसलमान से आती है कि हिंदू से आती है? कोई उपाय नहीं है। शरीर की जांच से कुछ भी पता न चलेगा; क्योंकि, दोनों के शरीर पांच तत्त्वों से बनते हैं। लेकिन अगर उनकी खोपड़ी की जांच करो तो पता चल जायेगा कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है; क्योंकि दोनों के शाख अलग, दोनों के सिद्धांत अलग, दोनों के शब्द अलग। शब्दों का भेद है तुम्हारे बीच। तुम हिंदू हो; क्योंकि तुम्हें एक तरह का ज्ञान मिला, जिसका नाम हिंदू है। दूसरा जैन है; क्योंकि उसे दूसरी तरह का ज्ञान मिला, जिसका ज्ञान जैन है। तुम्हारे बीच जितने फासले है—दीवाले हैं—वें ज्ञान की दिवाले हैं, और सब ज्ञान उधार है।
तुम एक मुसलमान बच्चे को हिंदू के घर में रख दो, वह हिंदू की तरह बड़ा होगा। वह ब्राह्मण की तरह जनेऊ धारण करेगा। वह उपनिषद और वेद के वचन उद्धृत करेगा। और तुम एक हिंदू के बच्चे को मुसलमान के घर रख दो, वह कुरान की आयत दोहरायेगा।
ज्ञान तुम्हें बांटता है; क्योंकि ज्ञान तुम्हारे चारों तरफ एक दीवार खींच देता है। और ज्ञान तुम्हें लड़ाता है, और ज्ञान तुम्हारे जीवन में वैमनस्य और शत्रुता पैदा करता है। थोड़ी देर को सोचो कि तुम्हें कुछ भी न सिखाया जाये कि तुम हिंदू हो, या मुसलमान, या जैन, या पारसी, तो तुम क्या करोगे? तुम बड़े होओगे एक मनुष्य की भांति; तुम्हारे बीच कोई दीवार न होगी।
दुनियां में कोई तीन सौ धर्म हैं—तीन सौ कारागृह हैं। और हर आदमी के पैदा होते, उसे एक कारागृह से दूसरे कारागृह में डाल दिया जाता है। और पंडित, पुरोहित बड़ी चेष्टा करते हैं कि बच्चे पर जल्दी—से—जल्दी कब्जा हो जाए। उसको वे धर्म—शिक्षा कहते हैं। उससे ज्यादा अधर्म और कुछ भी नहीं है। वह उसको धर्म—शिक्षा कहते हैं। सात साल के पहले बच्चों को पकड़ते हैं; क्योंकि सात साल का बच्चा अगर बड़ा हो गया, तो फिर पकड़ना रोज—रोज मुश्किल हो जायेगा। और बच्चे को अगर थोड़ा भी बोध आ गया, तो फिर वह सवाल उठाने लगेगा। और सवालों का जवाब पंडितों के पास बिलकुल नहीं है। पंडित सिर्फ छो को तृप्त कर पाते हैं। जितनी कम बुद्धि का आदमी हो, पंडित से उतनी जल्दी तृप्त हो जाता है। वह एक प्रश्र पूछता है, उत्तर मिल जाता है। तुम जाते हो, पंडित से पूछते हो, संसार को किसने बनाया? वह कहता है, भगवान ने। तुम प्रसन्न घर लौट आते हो, बिना पूछे कि भगवान को किसने बनाया। अगर तुम दूसरा प्रश्र पूछते, पंडित नाराज हो जाता; क्योंकि, उसका उसे भी पता नहीं है। किताब में वह लिखा नहीं है। और फिर झंझट की बात है. परमात्मा को किसने बनाया! फिर तुम पूछते ही चले जाओगे; वह कोई भी जवाब दे, तुम पूछोगे, उसको किसने बनाया।
अगर गौर से देखो तो तुम्हारे पहले सवाल का जवाब दिया नहीं गया है। पंडित ने तुम्हें सिर्फ संतुष्ट कर दिया; क्योंकि तुम बहुत बुद्धिमान नहीं हो। और बच्चे अबोध हैं। उनका अभी तर्क नहीं जगा, विचार नहीं जगा; अभी वे प्रश्र नहीं पूछ सकते। अभी तुम जो भी कचरा उनके दिमाग में डाल दो, वे उसे स्वीकार कर लेंगे। बच्चे सभी कुछ स्वीकार कर लेते हैं; क्योंकि वे सोचते हैं, जो भी दिया जा रहा है, वह सभी ठीक है। बच्चा ज्यादा सवाल नहीं उठा सकता। सवाल उठाने के लिए थोड़ी प्रौढ़ता चाहिए। इसलिए सभी धर्म बच्चों की गर्दन पकड़ लेते हैं और फांसी लगा देते हैं।।
फांसी बड़ी सुंदर! किसी के गले में बाइबल लटकी है, किसी के गले में समयसार लटका है; किसी के गले में कुरान लटकी है, किसी के गले में गीता लटकी है। ये इतने प्रीतिकर बंधन हैं कि इनको छोड़ने की हिम्मत फिर जुटानी बहुत मुश्किल है। और जब भी तुम इन्हें छोड़ना चाहोगे, एक खतरा सामने आ जायेगा। क्योंकि, इन्हें छोड़ा तो तुम अज्ञानी! क्योंकि, जैसे तुम उन्हें छोड़ोगे, तुम पाओगे, मैं तो कुछ जानता नहीं, बस यह किताब सारी संपदा है। इसको सम्हालो अपने अज्ञान को छिपाने का यही तो एक उपाय है। लेकिन अज्ञान छिपने से अगर मिटता होता, तो बड़ी आसान बात हो गई होती। अज्ञान छिपने से बढ़ता है। जैसे कोई अपने घाव को छिपा ले। उससे कुछ मिटेगा नहीं। घाव और भीतर ही भीतर बढ़ेगा; मवाद पूरे शरीर में फैल जायेगी।
शिव कहते है ज्ञान बंध है—शान सीखा हुआ, ज्ञान उधार, ज्ञान दूसरे से लिया हुआ—बंधन का कारण है। तुम उस सबको छोड देना, जो दूसरे से मिला है। तुम उसकी तलाश करना, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला। तुम उसकी खोज में निकलना, उस चेहरे की खोज में जो कि तुम्हारा है। तुम्हारे भीतर छिपा हुआ एक झरना है चैतन्य का, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला। जो तुम्हारा स्वभाव है, जो तुम्हारी निज—संपदा है, निजत्व है—वही तुम्हारी आत्मा है। शिवसूत्र बाई *‪#‎Osho‬#* सुप्रभात *‪#‎Rsvdfbfamily‬*#
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