Monday, August 22, 2016

👤मन की समस्या क्या है ?👤
पहली बात, वह यह, हमारे भीतर जो यह आकांक्षा और दौड़ होती है कि हम भर लें अपने को, फुलफिलमेंट की, पूर्णता की, पा लेने की, कुछ हो जाने की, यह दौड़ इसलिए पैदा होती है कि हमें अहसास होता है कि भीतर हम खाली हैं, भीतर अभाव है, भीतर एंप्टीनेस है, भीतर कुछ भी नहीं है।
भीतर मालूम होता है ना कुछ, भीतर मालूम होता है शून्य, उस शून्य को भरने के लिए हम दौड़ते हैं, दौड़ते हैं, दौड़ते हैं।
लेकिन क्या आपको पता है कि जो शून्य भीतर है, उसे बाहर की कितनी ही सामग्री से भरना असंभव है! क्योंकि शून्य है भीतर और हमारे साम्राज्य होंगे बाहर, साम्राज्य बढ़ते चले जाएंगे, शून्य अपनी जगह बना रहेगा। इसीलिए तो सिकंदर खाली हाथ मरता है। नहीं तो सिकंदर के हाथ में तो बड़ा साम्राज्य था, बड़ी धन—दौलत थी। शायद ही किसी आदमी कै पास इतना बड़ा साम्राज्य रहा हो, इतनी धन—दौलत रही हो। खाली हाथ क्यों मरता है यह आदमी? यह खाली हाथ किस बात की सूचना है? यह सूचना है कि भीतर जो खालीपन है वह नहीं भरा जा सका। बाहर सब इकट्ठा हो गया; लेकिन नहीं, भीतर कुछ भी नहीं पहुंच सका।
कौन सी चीज भीतर पहुंच सकती है?
बाहर की कोई भी चीज भीतर नहीं पहुंच सकती। बाहर के मित्र बाहर हैं, बाहर की संपदा बाहर है, बाहर का धन, बाहर की यश प्रतिष्ठा, सब बाहर है। और भीतर हूं मैं। मेरे अतिरिक्त मेरे भीतर कोई भी नहीं। मेरा होना ही मेरा भीतर है। मेरा बीइंग ही मेरा, मेरा आंतरिक शून्य है, मेरी आंतरिक रिक्तता है। भीतर मैं हूं खाली, बाहर मैं दौड़ता हूं कि भरूं, भरूं। बहुत इकट्ठा कर लेते हैं दौड़ कर। लेकिन जब आंख उठा कर देखते हैं तो पाते हैं भीतर तो सब खाली है, दौड़ तो व्यर्थ गई।
इसलिए नहीं है उपाय कि भीतर है शून्य, बाहर है सामग्री। फिर हम क्या करें? इस भीतर के शून्य को कैसे भरें? कैसे हमें अहसास हो जाए कि अब मेरी कोई मांग नहीं?
उसी दिन आदमी जीवन में कहीं पहुंचता है जिस दिन उसकी कोई मांग नहीं रह जाती, जिस दिन उसका भिखारी मर जाता है। धर्म प्रत्येक मनुष्य को ऐसी जगह ले जाना चाहता है जहां वह सम्राट हो जाए। दिखता तो ऐसा है कि संसार में सम्राट होते हैं, लेकिन जो जानते हैं वे कहेंगे, संसार में कभी कोई सम्राट नहीं हुआ, सभी भिखारी हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ भिखारी छोटे हैं, कुछ भिखारी बड़े हैं; यह दूसरी बात है कि किन्हीं का भिक्षापात्र छोटा है, किन्हीं का बड़ा है; यह दूसरी बात है कि कुछ रोटी मांगते हैं, कोई राज्य मांगता है। लेकिन मांगने के संबंध में कोई भिन्नता नहीं, भिखमंगेपन में कोई भेद नहीं।
धर्म तो समझता है कि केवल वे ही लोग सम्राट हो सकते हैं जो भीतर एक आंतरिक संपूर्णता को उपलब्ध होते हैं। उनकी सारी मांग मिट जाती है। उनकी दौड़, उनके भिक्षा का पात्र टूट जाता है।
#-जीवन रहस्य
🌹ओशो 👏👏👏👏👏

Tuesday, August 16, 2016

बुद्ध के पास मौलुंकपुत्त नाम का एक दार्शनिक आया। उसने कहा : ईश्वर है?
बुद्ध ने कहा : सच में ही तू जानना चाहता है या यूं ही एक बौद्धिक खुजलाहट?
मौलुंकपुत्त को चोट लगी। उसने कहा : सच में ही जानना चाहता हूं। यह भी आपने क्या बात कही! हजारों मील से यात्रा करके कोई बौद्धिक खुजलाहट के लिए आता है?
तो फिर बुद्ध ने कहा : तो फिर दांव पर लगाने की तैयारी है कुछ।
मौलुंकपुत्त को और चोट लगी, क्षत्रिय था। उसने कहा : सब लगाऊंगा दांव पर। हालांकि यह सोचकर नहीं आया था। पूछा उसने बहुतों से था कि ईश्वर है और बड़े वाद—विवाद में पड़ गया था। मगर यह आदमी कुछ अजीब है, यह ईश्वर की तो बात ही नहीं कर रहा है, ये दूसरी ही बातें छेड़ दीं कि दांव पर लगाने की कुछ हिम्मत है। मौलुंकपुत्त ने कहा : सब लगाऊंगा दांव पर, जैसे आप क्षत्रिय पुत्र हैं, मैं भी क्षत्रिय पुत्र हूं, मुझे चुनौती न दें।
बुद्ध ने कहा : चुनौती देना ही मेरा काम है। तो फिर तू इतना कर—दो साल चुप मेरे पास बैठ। दो साल बोलना ही मत—कोई प्रश्न इत्यादि नहीं, कोई जिज्ञासा वगैरह नहीं। दो साल जब पूरे हो जाएं तेरी चुप्पी के तो मैं खुद ही तुझसे पूछूंगा कि मौलुंकपुत्त, पूछ ले जो पूछना है। फिर पूछना, फिर मैं तुझे जवाब दूंगा। यह शर्त पूरी करने को तैयार है?
मौलुंकपुत्त थोड़ा तो डरा क्योंकि क्षत्रिय जान दे दे यह तो आसान मगर दो साल चुप बैठा रहे…..! कई बार जान देना बड़ा आसान होता है, छोटी—छोटी चीजें असली कठिनाई की हो जाती हैं। जान देना हो तो क्षण में मामला निपट जाता है, कि कूद गए पानी में पहाड़ी से, कि चले गए समुद्र में एक दफा हिम्मत करके, कि पी गए जहर की पुड़िया—यह क्षण में हो जाता है। इतने तेज जहर हैं कि तीन सैकंड में आदमी मर जाए, बस जीभ पर रखा कि गए, एक क्षण की हिम्मत चाहिए। लेकिन दो साल चुप बैठे रहना बिना जिज्ञासा, बिना प्रश्न, बोलना ही नहीं, शब्द का उपयोग ही नहीं करना—यह ज़रा लंबी बात थी मगर फंस गया था। कह चुका था कि सब लगा दूंगा तो अब मुकर नहीं सकता था, भाग नहीं सकता था। स्वीकार कर लिया, दो साल बुद्ध के पास चुप बैठा रहा।
जैसे ही राजी हुआ वैसे ही दूसरे वृक्ष के नीचे बैठा हुआ एक भिक्षु जोर से हंसने लगा। मौलुंकपुत्त ने पूछा : आप क्यों हंसते हैं?
उसने कहा : मैं इसलिए हंसता हूं कि तू भी फंसा, ऐसे ही मैं फंसा था। मैं भी ऐसा ही प्रश्न पूछने आया था कि ईश्वर है और इन सज्जन ने कहा कि दो साल चुप। दो साल चुप रहा, फिर पूछने को कुछ न बचा। तो तुझे पूछना हो तो अभी पूछ ले। देख, तुझे चेतावनी देता हूं, पूछना हो अभी पूछ ले, दो साल बाद नहीं पूछ सकेगा।
बुद्ध ने कहा : मैं अपने वायदे पर तय रहूंगा, पूछेगा तो जवाब दूंगा। अपनी तरफ से भी पूछ लूंगा तुझसे कि बोल पूछना है? तू ही न पूछे, तू ही मुकर जाए अपने प्रश्न से तो मैं उत्तर किसको दूंगा?
दो साल बीते और बुद्ध नहीं भूले। दो साल बीतने पर बुद्ध ने पूछा कि मौलुंकपुत्त अब खड़ा हो जा, पूछ ले।
मौलुंकपुत्त हंसने लगा। उसने कहा : उस भिक्षु ने ठीक ही कहा था। दो साल चुप रहते—रहते चुप्पी में ऐसी गहराई आई; चुप रहते—रहते ऐसा बोध जमा, चुप रहते—रहते ऐसा ध्यान उमगा; चुप रहते—रहते विचार धीरे—धीरे खो गए, खो गए, दूर—दूर की आवाज मालूम होने लगे; फिर सुनाई ही नहीं पड़ते थे, फिर वर्तमान में डुबकी लग गई और जो जाना…..बस आपके चरण धन्यवाद में छूना चाहता हूं। उत्तर मिल गया है, प्रश्न पूछना नहीं है।
परम ज्ञानियों ने ऐसे उत्तर दिए हैं—प्रश्न नहीं पूछे गए उत्तर मिल गए हैं। प्रश्नों से उत्तर मिलते ही नहीं—शून्य से मिलता है उत्तर। और जो उत्तर मिलता है वही परमात्मा है। और तब तुम्हें चारों तरफ वही एक दिखाई पड़ता है। अभी कहीं नहीं दिखाई पड़ता फिर ऐसी जगह नहीं दिखाई पड़ती जहां न हो। अभी तुम पूछते हो परमात्मा कहां है; फिर पूछोगे परमात्मा कहां नहीं है |

Sunday, August 14, 2016

भारत का एकाधिकार ओशो
भारत के पूरे इतिहास में एक भी बड़ा वैज्ञानिक तुम न पाओगे। ऐसा नहीं कि यहां बुद्धिमान और कुशल लोग न हुए, कि प्रतिभाएं नहीं जन्मीं। गणित की आधारशिला भारत में रखी गई थी, किंतु अल्बर्ट आइंस्टीन यहां पैदा नहीं हुआ। चमत्कारिक रूप से यह पूरा देश किसी बाह्य खोज में उत्सुक ही नहीं था। ‘पर’ की पहचान नहीं, वरन स्वयं को जानना ही यहां एकमात्र लक्ष्य रहा।
कम से कम दस हजार सालों से लाखों-करोड़ों लोग सतत एक ही प्रयास में जुटे रहे, उसके पीछे सब कुछ बलिदान कर दिया विज्ञान, तकनीकी विकास, समृद्धि। उन्होंने दरिद्रता, रुग्णता, बीमारियां और मृत्यु को भी स्वीकार कर लिया, परंतु सत्य की खोज को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा। इससे एक खास किस्म का वातावरण निर्मित हुआ, कुछ विषेष तरह की तरंगों का सागर जो चारों ओर से तुम्हें घेरे है।
यदि कोई थोड़े से भी ध्यानी चित्त को लेकर यहां आता है, तो उसे उन तरंगों का संस्पर्श होगा। हां, अगर एक पर्यटक की भांति आते हो तो तुम चूक जाओगे। तुम मंदिरों, महलों, खंडहरों को, ताजमहल, खजुराहो, और हिमालय को तो देख लोगे, पर भारत को नहीं देख पाओगे। तुम असली भारत से बिना मिले ही भारत से गुजर जाओगे।
यद्यपि वह सब ओर व्याप्त था, पर तुम संवेदनशील न थे, ग्राहक न थे। तुम कुछ ऐसा देखकर लौटोगे जो वास्तविक भारत नहीं, सिर्फ उसका अस्थि-पंजर है, आत्मा नहीं। तुम्हारे पास उस अस्थि-पंजर के फोटोग्राफ्स होंगे, उनका अलबम बनाओगे और सोचोगे कि भारत घूम आए, भारत को जान लिया। यह स्वयं को धोखा दे रहे हो तुम।
एक आध्यात्मिक पहलू भी है। न तो तुम्हारे कैमरा उसके चित्र लेने में, और न ही तुम्हारे शिक्षा-संस्कार उसे पकड़ने में सक्षम हैं। जर्मनी, इटली, फ्रांस, इंग्लैंड अथवा किसी भी देश में जाकर तुम वहां के लोगों से मिल सकते हो। वहां के भूगोल से, इतिहास और अतीत से भलीभांति परिचित हो सकते हो।
लेकिन जहां तक भारत का प्रश्न है, ऐसा नहीं किया जा सकता। यदि अन्य देषों की श्रेणी में भारत को गिना, तो प्रारंभ से ही तुमने चूक कर दी, क्योंकि उन देशों में वैसा आध्यात्मिक आभामंडल नहीं है। उन्होंने एक भी गौतम बुद्ध, महावीर, नेमीनाथ और आदिनाथ को जन्म नहीं दिया।
एक भी कबीर, फरीद या दादू पैदा नहीं किया। उन्होंने बड़े वैज्ञानिकों, कवियों, कलाकारों, चित्रकारों और सभी प्रकार के प्रतिभा-संपन्न व्यक्तियों को तो पैदा किया, पर रहस्यदर्शी ऋषि भारत की मोनोपॉली है, एकाधिकार है, कम से कम अभी तक तो यह एकाधिकार रहा है।
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हमारा राष्ट्रीय धर्म ,हमारा राष्ट्रीय ध्वज .


हमारे देश में अनेक धर्म संस्कृतियाँ विद्यमान हैं ,और सबके अपने अपने पर्व त्यौहार हैं तो फिर क्या ये सरकारी कार्यक्रम है ? जिसे सभी सरकारी कर्मचारीगण मनाते हैं..और बाकी लोगो की मर्जी हम मनाएं अथवा ना मनाये..किसी को क्या लेना ..
आज यही सोच देश के कई हिस्सों में पनप रही है और स्वार्थ की खाद पानी पाकर
फल फूल भी रही है ..........
तो सभी देश वासी एक बार अपने राष्ट्रीय ध्वज को कुछ देर ध्यान से देंखे..क्या कहना चाहता है ये अपने प्रिय देशवासियों से ?अब कहेंगे इसमें क्या खास है बचपन से पढ़ाया गया है कि तिरंगे के तीन रंग हमें वीरता ,शांति और समृद्धि का संदेश देते हैं ..............हाँ ये सच है कि भारत का ध्वज बहुत विराट विचारों का मूर्त रूप है ..
लेकिन जरा रुकें क्या कभी आपने सोचा कि केसरिया रंग सबसे ऊपर क्यों है ?
ये सवाल इसलिए भी जरूरी है कि आज हमने रंगों को भी धर्मों के नाम पर आरक्षित कर लिया है | और हो सकता है कल कोई सिरफिरा सडक पर उतर कर ये मांग कर बैठे कि मुझे तिरंगे में सबसे ऊपर अपने धर्म का रंग चाहिए | क्योंकि ये भारत नहीं हिंदुस्तान है और यहाँ अब सब सम्भव है ................
केसरिया रंग ऊपर है तो समझ लें कि भारत के संविधान ने हमारे वीरों को हमारी सेना को हमारे रक्षकों को सबसे ऊपर माना है और उनका सम्मान करना प्रत्येक भारतीय का राष्ट्रीय धर्म है और इसके लिए किसी धर्म की आड़ नहीं मिल सकती .
आप चाहें कि कुरान अथवा गीता हाथ में लेकर हमारी सेना का रास्ता रोक लें तो
इसकी अनुमति किसी को भी नहीं है ....
यदि आप तिरंगे की पहली पट्टी को अपना राष्ट्रीय धर्म बना लें तो दूसरी पट्टी जो कि एकदम श्वेत है वो अपना उद्देश्य स्वयं प्राप्त कर लेगी ............
अर्थात हम सब अपने अपने धर्मो को शांतिपूर्वक निभा सकेंगे ..और जिस देश के नागरिक शांतिपूर्वक अपने धर्म का पालन करते हैं वहां समृद्धि स्वत: ही विद्ध्यमान
रहती है .लेकिन ध्यान रहे समृद्धि के लिए राष्ट्रीय ध्वज की बीच की पट्टी का सफेद रहना बहुत आवश्यक है जिसके लिए हमें हर पल सजग रहना होगा .क्योंकि सफेद रंग का रख रखाव बहुत कठिन होता है | एक हल्का सा धब्बा भी दूर से दिखाई देता है | सो सफेदी की चमक बनी रहे इसके लिए हर पल जाग्रत रहना है | हम सभी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपना रंग चमकाने के चक्कर में राष्ट्रिय ध्वज की सफेद पट्टी पर कोई छींटा न गिर जाए .क्योंकि पहला छींटा ही सफेद पट्टी को पहला दाग देगा ..और दाग हर जगह अच्छे नहीं होते ..........
तो आओ अपने तिरंगे के संदेश को आत्मसात करते हुए मनाएं अपना .
"स्वतंत्रता दिवस ,,
जय हिन्द जय भारत
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