Friday, July 7, 2017

क्यों ख़त्म हो बौद्ध धर्म दुनिया के नक़्शे से ???
कहाँ ख़त्म हो गए पारसी अपने देश से ???
कहाँ खो गए यज़ीदी , अपने देश से ???
क्यों और किससे कूर्द अपने अस्तित्व की आखिरी लड़ाई लड़ रहे है ???
आज का मुस्लिम देश सीरिया कभी ईसाई हुआ करता था ,
मलेशिया,इंडोनेशिया,अफगानिस्तान बौद्ध हुआ करता था
है कोई जवाब इन बातों का????
अपनी किताब #तारिखएयामिनी में अबू नस्र मुहम्मद इब्न मुहम्मद अल जब्बरुल उत्बी ---थानेसर के निकट महमूद ग़ज़नवी द्वारा किये गए कत्लेआम का ज़िक्र यूँ करता है कि ---- नदी के पानी में खून इतनी अधिक मात्रा में था कि नदी का पानी लाल हो गया था i लोग उसे पी नहीं सकते थे। जो लोग किला छोड़ कर भागे या तो उन्हें काट डाला गया या वो नदी में बह गए। कुछ नहीं तो पचास हज़ार से ज्यादा आदमियों का क़त्ल किया गया था।
"Milk the Persians and once their milk dries, suck their blood." ----
पारसियों का दूध निकाल लो और जब दूध सूख जाये तो उनका खून चूस लो। शायद यही तर्ज़ुमा है इस आदेश का जो दिया था अरब के मुस्लिम खलीफा ने वर्ष 741 AD में ईरान पर काबिज होने के बाद। ईरान इराक में पारसियों पर अत्याचारों होने की कहानी न यहाँ से शुरू होती है और न यहाँ पर ख़त्म होती है।
लेख पढ़ने से पहले इतनी सी बात याद रख लीजिये कि वर्ष 610 में इस्लाम के पैदा होने से पहले वर्तमान ईरान और इराक में एक शांतिप्रिय धर्म #पारसी हुआ करता था। --- अब आगे पढ़िए , कि क्या हुआ उस धर्म का।
वर्ष 636 में अरब के खलीफा उमर ने ईरान के राजा को पत्र भेजा कि वो लोग पारसी धर्म छोड़ कर इस्लाम कबूल कर लें। जिसे ईरान के राजा यज़्दगिर्द ने यह कह कर मन कर दिया कि हमें तुम्हारा मारकाट वाला धर्म स्वीकार नहीं करना है। हम जहाँ भी जाते हैं , वहां धर्म प्यार मोहब्बत और बंधुत्व के बीज बोते हैं। बस यही बात खलीफा को नागवार गुज़र गयी। ( https://themuslimissue.wordpress.com/…/pre-islamic-iran-pe…/
मुख्य ईरान पर अरब आक्रमण से पहले खलीफा इब्न अल खत्ताब ने मेसोपोटामिया और ईरान के एक राज्य खवरवरण (आज का इराक) पर कब्ज़ा किया। वर्ष 637 में इस खलीफा के एक सेनापति साद इब्न अबी वक़्क़ास ने खवरवरण की राजधानी स्तेस्फियन को जीता -- और वहां के महलों , और संग्राहलयों को आग लगा दी। इसके बाद #तारीखेअलताबरी के लेखक #अल_ताबरि के अनुसार साद इब्न अबी वक़्क़ास ने खलीफा से पूछा कि "स्तेस्फियन में किताबों का क्या करना है ?" उमर का जवाब आया "अगर इनमे कुरान से अलग कुछ लिखा है तो यह ईश निंदा है और अगर इनमे कुरान जैसी बातें ही लिखी हैं तो इनकी ज़रुरत नहीं है हमारे लिए कुरान ही पर्याप्त है।" इसके बाद वक़्क़ास ने पुस्तकालयों को आग लगा दी और बचीखुची किताबों को फराह नदी में बहा कर पारसी वैज्ञानिकों और विद्वानों की पीढ़ियों की मेहनत कुछ दिनों में खत्म कर दी ।इसके बाद 40000 पारसियों को पकड़ कर अरब देशों में गुलाम बना कर बेच दिया। ( भारत की नालंदा, तक्षशिला , पाटलीपुत्र और ओदन्तपुर याद आये क्या ???)
इसके बाद #मुस्लिम इतिहास बताता है कि उल्लाईस की लड़ाई में अरब सेनापति पारसियों के प्रतिरोध से थक कर इतना खीज गया कि युद्ध जीतते ही उसने सारे युद्ध बंदियों का क़त्ल करवा कर नदी में फिंकवा दिया और इस नदी पर बने हुए बाँध को खुलवा दिया। पूरी नदी में लाशें ही लाशें तैर रहीं थीं और पानी का रंग लाल हो गया था , जिसके बाद इस नदी को खून की नदी कहा जाने लगा। इसके बाद अरब लोग ईरान के शहर इस्तखर की तरफ बढ़े और पारसी धर्म को मानने वाले 40000 लोगों को कत्ल कर दिया। (मेरा सवाल तो ज़ेहन में है न , कौन सा वो मुस्लिम आक्रांता था जिसने हिन्दुओं का इतना खून बहाया था कि नदी का पानी लाल हो गया था और उपयोग में लाने लायक नहीं बचा था )
इसके बाद यज़ीद इब्न मोहल्लेब, एक उमय्यैद सेनापति ने ईरान के माज़न्दरान राज्य पर चढ़ाई की। युद्ध जीतने के बाद अरब आदेश दिया कि जितने भी युद्ध बंदी हैं उन्हें मार कर राजधानी जाने वाली सड़क के दोनों तरफ लटका दो। जब वो माज़न्दरान की राजधानी पहुंचा तो उसने 6000 पारसियों को गुलाम बनाया और 12000 को क़त्ल करवा दिया। इसके बाद #गोरगन शहर में उसने आदेश दिया कि आटा पीसने वाली पनचक्कियां युद्धबंदियों के खून से चलाई जाएँ और तीन दिन तक लगातार पनचक्कियां पारसियों के खून से चलीं। यज़ीद आज भी इस बात के लिए जाना जाता है कि उसने रोटी का आटा युद्धबंदियों के खून से गुंथवाया था और खुद भी वो रोटी खायी थी।
इसके साथ ही हज़ारों पारसी पुजारियों को मार दिया गया, धार्मिक साहित्य जला दिया गया। उनके सारे आग के मदिर तोड़ दिए गए और जो नहीं तोड़े गए उनपर मीनारें बना कर उन्हें मस्जिदों में तब्दील कर दिया गया।
#इस्तखर और #बुखारा के "चाहर तकि"आग मंदिर के ऊपर मीनारें लगा कर बनाई गयीं मस्जिदें इसी का उदहारण हैं। (अयोध्या,काशी मथुरा याद आया क्या ??? ) इस तरह अरब का ईरान इराक पर एकाधिकार स्थापित हुआ।
http://www.historyofjihad.org/persia.html
ईरान जीतने के बाद , पारसियों को धिम्मी /जिम्मी का दर्जा दिया गया। इस दर्जे के तहत कोई मुसलमान आत्मरक्षा की आड़ में किसी भी पारसी को परेशान कर सकता था,बेइज़्ज़त कर सकता था, गाली दे सकता था , शारीरिक यंत्रणा दे सकता था, पारसी का जबरदस्ती धर्मान्तरण कर सकता था या जान से मार सकता था। यह सब करने के लिए किसी वजह की ज़रुरत नहीं चाहिए होती थी। धिम्मी को कुरान के मुताबिक जजिया तो देना ही होगा, यह अलिखित क़ानून था। और जजिया देने का एक तरीका भी था , कि धिम्मी जजिया देने चल कर जायेगा और वसूलने वाला उसे गर्दन से पकड़ कर झिंझोड़ कर कहता है ,जजिया दो, और जजिया लेने के बाद उसकी गर्दन पर थप्पड़ मार कर उसे भगा दिया जाता था। मकसद धिम्मियों की हर हाल में बेइज़्ज़ती करना था। ( याद आया , भारत में अलाउद्दीन खिलजी के राज्य में जजिया वसूलने वाला , जजिया देने वाले का मुंह खुलवा कर उसके मुंह में थूक सकता था )
Mary Boyce अपनी किताब Zoroastrians, Their Religious Beliefs and Practices में लिखती हैं कि जजिया सबसे बढ़िया साधन था , पारसियों को स्वेच्छा से इस्लाम कबूल करने के लिए। धिम्मी लोगों को त्वरित धर्मांतरण के लिए विशेष सुविधाएँ दी जातीं थीं जिससे वे धिम्मी होने के दंश और तत्पश्चात होने वाली बेइज़्ज़ती से निजात प् सकें। एक बार कोई पारसी इस्लाम कबूल कर लेता था तो उसके बच्चों को मदरसों में जाना पड़ता था ,अरबी भाषा और क़ुरान सीखनी पड़ती थी और इस तरह पारसी अपनी पहचान खोते गए। मैरी बॉयस आगे लिखती हैं कि इस्लाम कबूलना जितना आसान था पलट कर अपने धर्म में जाना उतना ही मुश्किल था यदि कोई कोशिश भी करता तो उसे मौत ही मिलती थी। इस तरीके से धर्मपरिवर्तन के पश्चात् अरब ये कहते थे कि पारसियों ने स्वेच्छा से धर्मपरिवर्तन किया है। इस तरह की दबावों और प्रतिबन्धों को जिनके तहत धर्म परिवर्तित किया जाता था उन्हें ,बहुत आसानी से भुला और नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था।
पारसी युद्धबन्दी और गुलाम जो इस्लाम कबूल कर लेते थे उन्हें आज़ाद कर दिया जाता था। ( ये सब पढ़ने के बाद अलाउद्दीन खिलजी और औरंगज़ेब याद आये क्या ????)
एक वेबसाइट tenets.zoroastrianism.com जिसका शीर्षक है Zarathustri Pilgrimage Sites In Iran में Prof. Edward G. Browne in his A Year Amongst The Persians (the year being 1887-88): को उद्घृत करते हुए बहुत ही मार्मिक शब्दों में पारसियो की दयनीय दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि --- इनके घरों में खिड़कियां नहीं होती थीं। रौशनी सिर्फ दरवाज़ों की झिरियों से आ सकती थी। खिड़कियों की जगह दीवारों में टूटी हुई बोतलें लगी होती थीं जिनसे सिर्फ बाहर कौन है सिर्फ यह देखा जा सकता। छतें घरों को को पूरा का पूरा ढकती थीं जिससे कोई लूटमार करने वाला , बलात्कारी छत के घर में न घुस आये। हर तरफ से बंद घर एक दमनकारी अन्धकारपूर्ण भय पैदा करते थे और यह अंधकारपूर्ण स्थिति उस धर्म के अनुयायियों की थी जिन्होंने सिर्फ रोशनी और आग को ही पूजना सीखा था।
http://www.heritageinstitute.com/…/hist…/islamichistory1.htm
वर्ष 741 तक खलीफाओं के अत्याचार इतने बढ़ गए थे कि सब सन्धियों और करारों के बावजूद ईरान के सारे के सारे आग मंदिर तोड़ दिए गए और खलीफा ने ये ऐलान कर दिया कि -----"Milk the Persians and once their milk dries, suck their blood." -
#अछूतबनाकर_मानमर्दन ----
Prof. John Hinnells जो विश्वप्रसिद्ध विश्विद्यालयों में प्रोफेसर रहे हैं और जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ पारसी इतिहास और धर्म पर शोध किया है , वे लिखते है कि पारसियों को इस्लामी आक्रांता #नाजिस कह कर सम्बोधित करते थे और उन्हें अशुद्ध तथा मुसलमानों में अशुद्धता फैलाने वाला समझा जाता था। इसलिए पारसियों को अछूत समझा जाता था और उन्हें मुसलामानों के साथ रहने के अयोग्य समझा जाता था। इस मानसिकता का एक परिणाम यह भी निकला कि पारसियों को ज़बरदस्ती धक्के मार कर शहर से निकाल दिया जाता था और मुसलमानों की उपस्थिति में उनपर हर प्रकार के प्रतिबन्ध लगे रहते थे। ये परिस्थियाँ वर्ष 637 से 750 तक की लिखी गयीं है ,( और अगर किसी को अल बरुनी का वर्ष 1030 में भारत के विषय में लिखा हुआ संस्मरण #किताब तारीखे अल_हिन्द, याद हो तो वो साफ़ साफ़ लिख कर गया है कि चार वर्णो और सात शिल्पकार जातियों में छुआछूत जैसी कोई बिमारी नहीं थी।)
इस तरह एक समय ईरान के बहुसंख्यक पारसी गिनती में कम होने लगे, कम होने के कारण उनकी प्रतिरोध क्षमता कम होती गयी और एक दिन ईरान और इराक से पारसी ख़त्म हो गए।
http://www.heritageinstitute.com/zoroastrian…/…/postArab.htm
आज ईरान की जनसँख्या आठ करोड़ की है यहाँ सिर्फ 25271 पारसी और 8756 यहूदी बचे हैं और इराक की जनसँख्या लगभग तीन करोड़ साठ लाख -- जान कर खुश हो जाइये कि इराक में एक भी यहूदी और पारसी नहीं बचा है। ( भारत की कश्मीर घाटी की याद तो नहीं आ रही जहाँ बड़ी संख्या में हिन्दू थे आज कितने हिन्दू बचे हैं। )
ये बातें वामपंथी इतिहासकार कभी बताएँगे नहीं , छुआछूत और दलितापे का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ने वाले कभी जानने की कोशिश करेंगे नहीं और अपने को सेक्युलर समझने वाले बीमार दिमाग के लोग कभी असली मुज़रिमों को कटघरे में खड़ा करने का दम अपने अंदर पैदा कर नहीं पाएंगे।
http://shivashaurya.blogspot.in/2017/05/blog-post_20.html