स्त्री
मातृस्वरुप संस्थिता होने के पश्चात
या सगर्भा होने के पश्चात
विष्णुस्वरूप आचार विचार वाले_ पुरुष का ही _सम्मान करती हैं !
और
कामी लम्पट (पति) को झटककर _ दूर फेंकती हैं !
_________
इसीलिए वेद कहता हैं -- तेरा ११वां पुत्र , तेरा पति ही हो !
ऋग्वेद में विवाह के समय वधू को आशीर्वाद दिया गया है,
‘दशास्याँ पुत्रन धेहि पतिमेकादशं कृधि ‘ (10.85,45)
अर्थात् हे इंद्रदेव ! इस स्त्री को दस पुत्र हों , जिससे पति इसका ग्यारहवाँ पुत्र होवे । ऋषि ने अपनी शुभकामना आशीर्वाद में अध्यात्म भाव को ही वरेण्य माना है। अध्यात्म की दृष्टि से, विवाह , मनुष्य की अंतर्निहित संवेदना को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए है।
दस पुत्रों को जन्म देने और पति को ग्यारहवाँ पुत्र बना लेने वाले आशीर्वाद को तंत्र ने भी अपनाया है। वेद मंत्रों की नैतिक, मनोवैज्ञानिक और आदर्शवादी व्याख्या करने वालों के अनुसार मंत्र का आशय कामभावना का अतिक्रमण है।
विवाह का उद्देश्य यौन -जीवन में संयम-संतुलन रखते हुए कामभाव का परिमार्जन करना और उससे मुक्त हो जाना है। अध्यात्मविद् कहते हैं कि गृहस्थधर्म का भलीभाँति पालन किया गया हो तो उसकी परिणति कामभाव से मुक्ति के रूप में ही होगी।
तंत्र की मान्यता है कि कामभाव का सही उपयोग किया जाए, मूलाधार केंद्र में बैठी कुँडलिनी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाया जाए, यौन संबंधों के रतिसुख को साक्षी भाव से देखे और उसका अतिक्रमण कर जाएँ, तो ऋषि का आशीर्वाद फलीभूत होता है । ऋषि ने वधू को आशीर्वाद दिया है कि वह दस पुत्रों की माँ बने और ग्यारहवाँ पुत्र उसका पति हो । इसी आशीर्वाद में पुरुष के भी कामभाव से मुक्त होने की कामना है। पत्नी यदि माँ बन जाएगी , तो पति में भी स्त्री के प्रति मातृत्व का भाव विकसित होगा। नैसर्गिक दृष्टि से संतान का संबंध माँ से ही होता है। स्थूल दृष्टि से पिता एक सामाजिक आवश्यकता भर है। स्थूल दृष्टि से माँ के संबंध में यह बात नहीं कही जा सकती। वह शरीर और समाज की दृष्टि से भी संतान की जाननी अभिभावक है। मंत्र में स्त्री का उल्लेख कर उसी मातृत्व को प्रतिष्ठा दी गई है।
इस युग में भी कई विभूतियों ने पत्नी को माँ के रूप में देखने या पति को पुत्र बना लेने वाली सिद्धियाँ हस्तगत की है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने विवाहित जीवन आरंभ करते ही पत्नी को महाशक्ति के रूप में देखा। उन्होंने संतान की कभी कामना नहीं की । लीलाप्रसंग में किसी ने उनसे पूछा भी सही कि माँ (शारदामणि) के मन में कभी संतान की इच्छा नहीं हुई। परमहंस ने कहा, माँ से ही पूछो न बाबा । मुझसे पूछते हो तो यही उतर है कि मैं उसका ही शिशु हूँ।
शास्त्रों और साधकों ने शक्ति की कामना स्त्री और माँ के रूप में की है। कोई भी साधक महाशक्ति को पत्नी या पुत्री के रूप में नहीं देखता । शक्ति के प्रति यह भाव जीवन-चेतना के सामान्य-स्वाभाविक आवेगों को पार कर संवेदना के उस क्षीरोदधि को पा लेने का भाव है जहाँ ममता, वात्सल्य, अनुग्रह और करुणा ही व्याप्त है। विविधता है, तो इन्हीं के तरल सघन रूपों में अन्यथा सर्वत्र एक स्नेहिल भाव है। वह भाव समर्पण और उसकी समुद्र समाना बूँद में जैसी सिद्धि तक पहुँचाता है।
ऋषि जब यह आशीर्वाद देते हैं। कि इस स्त्री के दस पुत्र उत्पन्न हों और पति ग्यारहवां पुत्र बने तो उसमें मातृत्व का ही आह्वान है। मंत्र का भाव यह है कि मातृत्व परिपक्व हो । परिपक्वता की कसौटी यह है कि संतान को देखकर तो वात्सल्य भाव आए ही, पति भी संतान की तरह दिखाई दे।
उपनिषदों में (संभवत: वृहदारण्य उपनिषद में) एक जगह आता है कि अमुक ऋषि (संभवतया लोमश ऋषि) ने कन्यादान के पश्चात विदा करते हुए अपनी शिष्या को यह आशीर्वाद दिया था-- जाओ, तुम्हारे दस पुत्र हों और ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो।
Bindu sharma.
मातृस्वरुप संस्थिता होने के पश्चात
या सगर्भा होने के पश्चात
विष्णुस्वरूप आचार विचार वाले_ पुरुष का ही _सम्मान करती हैं !
और
कामी लम्पट (पति) को झटककर _ दूर फेंकती हैं !
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इसीलिए वेद कहता हैं -- तेरा ११वां पुत्र , तेरा पति ही हो !
ऋग्वेद में विवाह के समय वधू को आशीर्वाद दिया गया है,
‘दशास्याँ पुत्रन धेहि पतिमेकादशं कृधि ‘ (10.85,45)
अर्थात् हे इंद्रदेव ! इस स्त्री को दस पुत्र हों , जिससे पति इसका ग्यारहवाँ पुत्र होवे । ऋषि ने अपनी शुभकामना आशीर्वाद में अध्यात्म भाव को ही वरेण्य माना है। अध्यात्म की दृष्टि से, विवाह , मनुष्य की अंतर्निहित संवेदना को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए है।
दस पुत्रों को जन्म देने और पति को ग्यारहवाँ पुत्र बना लेने वाले आशीर्वाद को तंत्र ने भी अपनाया है। वेद मंत्रों की नैतिक, मनोवैज्ञानिक और आदर्शवादी व्याख्या करने वालों के अनुसार मंत्र का आशय कामभावना का अतिक्रमण है।
विवाह का उद्देश्य यौन -जीवन में संयम-संतुलन रखते हुए कामभाव का परिमार्जन करना और उससे मुक्त हो जाना है। अध्यात्मविद् कहते हैं कि गृहस्थधर्म का भलीभाँति पालन किया गया हो तो उसकी परिणति कामभाव से मुक्ति के रूप में ही होगी।
तंत्र की मान्यता है कि कामभाव का सही उपयोग किया जाए, मूलाधार केंद्र में बैठी कुँडलिनी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाया जाए, यौन संबंधों के रतिसुख को साक्षी भाव से देखे और उसका अतिक्रमण कर जाएँ, तो ऋषि का आशीर्वाद फलीभूत होता है । ऋषि ने वधू को आशीर्वाद दिया है कि वह दस पुत्रों की माँ बने और ग्यारहवाँ पुत्र उसका पति हो । इसी आशीर्वाद में पुरुष के भी कामभाव से मुक्त होने की कामना है। पत्नी यदि माँ बन जाएगी , तो पति में भी स्त्री के प्रति मातृत्व का भाव विकसित होगा। नैसर्गिक दृष्टि से संतान का संबंध माँ से ही होता है। स्थूल दृष्टि से पिता एक सामाजिक आवश्यकता भर है। स्थूल दृष्टि से माँ के संबंध में यह बात नहीं कही जा सकती। वह शरीर और समाज की दृष्टि से भी संतान की जाननी अभिभावक है। मंत्र में स्त्री का उल्लेख कर उसी मातृत्व को प्रतिष्ठा दी गई है।
इस युग में भी कई विभूतियों ने पत्नी को माँ के रूप में देखने या पति को पुत्र बना लेने वाली सिद्धियाँ हस्तगत की है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने विवाहित जीवन आरंभ करते ही पत्नी को महाशक्ति के रूप में देखा। उन्होंने संतान की कभी कामना नहीं की । लीलाप्रसंग में किसी ने उनसे पूछा भी सही कि माँ (शारदामणि) के मन में कभी संतान की इच्छा नहीं हुई। परमहंस ने कहा, माँ से ही पूछो न बाबा । मुझसे पूछते हो तो यही उतर है कि मैं उसका ही शिशु हूँ।
शास्त्रों और साधकों ने शक्ति की कामना स्त्री और माँ के रूप में की है। कोई भी साधक महाशक्ति को पत्नी या पुत्री के रूप में नहीं देखता । शक्ति के प्रति यह भाव जीवन-चेतना के सामान्य-स्वाभाविक आवेगों को पार कर संवेदना के उस क्षीरोदधि को पा लेने का भाव है जहाँ ममता, वात्सल्य, अनुग्रह और करुणा ही व्याप्त है। विविधता है, तो इन्हीं के तरल सघन रूपों में अन्यथा सर्वत्र एक स्नेहिल भाव है। वह भाव समर्पण और उसकी समुद्र समाना बूँद में जैसी सिद्धि तक पहुँचाता है।
ऋषि जब यह आशीर्वाद देते हैं। कि इस स्त्री के दस पुत्र उत्पन्न हों और पति ग्यारहवां पुत्र बने तो उसमें मातृत्व का ही आह्वान है। मंत्र का भाव यह है कि मातृत्व परिपक्व हो । परिपक्वता की कसौटी यह है कि संतान को देखकर तो वात्सल्य भाव आए ही, पति भी संतान की तरह दिखाई दे।
उपनिषदों में (संभवत: वृहदारण्य उपनिषद में) एक जगह आता है कि अमुक ऋषि (संभवतया लोमश ऋषि) ने कन्यादान के पश्चात विदा करते हुए अपनी शिष्या को यह आशीर्वाद दिया था-- जाओ, तुम्हारे दस पुत्र हों और ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो।
Bindu sharma.